Book Title: Naishkarmya Siddhi
Author(s): Prevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
Publisher: Achyut Granthmala Karyalaya

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Page 151
________________ भाषानुवादसहिता १२५ अपास्तसामान्यार्थत्वादनुवादस्थत्वाद्विधीयमानेन च सह विरोधादुःखित्वादेरस्तु कामं जिहासितार्थयोरसंसर्गे यथोपन्यस्तदोषविरहात्तत्वमर्थयोः संसर्गोऽस्तु नीलोत्पलवदिति चेन्नैवमप्युपपद्यते । तस्मात् — तदर्थयोस्तु निष्टात्माद्वयपारोक्ष्यवर्जितः 1 नाऽद्वितीयं विनाऽऽत्मानं नात्मा नित्यदृशा विना ॥ ७६ ॥ शङ्का - परोक्षस्त्र, सद्वितीयत्वरूप वाच्यार्थ सामान्य है, इस कारण परित्यक्त है और दुःखिस्वादि श्रनूद्यमान त्वंपदार्थ में रहनेवाला एवं विधीयमान तत् पदार्थ के साथ विरुध है । इसलिए दोनों वाच्यार्थीका सम्बन्ध न होनेपर भी 'नील कमल के समान' दोनों लक्ष्यार्थीका परस्पर सम्बन्ध ही वाक्यार्थ क्यों नहीं होता ? समाधान- यह भी उपपन्न ( युक्त) नहीं। क्योंकि, जो तत्पदार्थ और स्वम्पदार्थ लक्षणभूत हैं, उनका पर्यवसानत्वरूप जो आत्मा है वह द्वत तथा परोक्षता से रहित, केवल खण्डस्वरूप है । तत्र नील और उत्पलके सहरा भेद प्रतीत न होनेपर 'संसर्ग' वाक्यार्थ कैसे हो सकता है । श्रद्वितीय तत्पदलक्ष्य ब्रह्म प्रत्यगात्मा के बिना स्वरूपको प्राप्त नहीं होता । वैसा होनेसे द्वितीय ही नहीं होगा । ऐसे ही स्वपदलक्ष्य श्रात्मा भी तत्पदलक्ष्य नित्य-सिद्ध चैतन्यज्योति के बिना स्वरूपको प्राप्त नहीं होता । वैसा होनेसे निष्यं श्रपरोक्ष चित् रूपता नहीं बनती। इस प्रकार जब भेद प्रतीत नहीं होता, श्रतएव तत्त्वम् पदकी खण्डार्थता है ॥ ७६ ॥ . अत्राह । किमिह जिहासितं किं वोपादित्सितमिति ? उच्यते । प्रत्यगात्मार्था' विधायिनस्त्वं पदादुभयं प्रतीयतेऽहं दुःखी प्रत्यगात्मा च । तत्र च प्रत्यगात्मनोऽहं दुःखीत्यनेनाभिसम्बन्ध आत्मयाथात्म्यानवबोधहेतुक एव । अतोऽहमर्थोऽनर्थोपसृष्टत्वादज्ञानोत्थत्वाच्च हेय इति प्रत्यक्षतोवसीयते । तदर्थे किं हेयं किं वोपादेयमिति नावधियते । तत इदमभिधीयते । पारोक्ष्यं यत्तदर्थे स्यात्तद्धेय महमर्थवत् प्रतीचे वाऽहमभेदः पारोक्ष्येणात्मनोऽपि मे ॥७७॥ इसपर कोई शङ्का करते हैं कि 'जब स्वम्पद शुद्ध आमाका प्रतिपादक है, इसमें स्यागने योग्य तथा ग्रहण करने योग्य अंश कौनसे हैं ? इसका उत्तर देते १ अर्थविधायिनः । ऐसा पाठ भी है।

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