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नैoर्म्यसिद्धिः
मुक्त ही हुआ है जिसको प्रबोध हुआ है, वह दूसरा ही है ।' सो यह भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि निद्रासे उठे हुए पुरुषको ऐसी प्रत्यभिज्ञा होती है कि मैंने सुषुप्ति कालमें किसी अन्य वस्तुको नहीं देखा । इसलिए शयन करनेवाला और प्रबुद्ध एक हो व्यक्ति है; ऐसा मानना चाहिए । जब ऐसा सिद्ध हुआ। तब अवश्य ही सुषुप्ति में अज्ञान भी मानना चाहिए । इसपर यदि कोई कहे कि यदि सुषुप्ति में अज्ञान होता तो वह रागद्वेष और घटादि पदार्थों के अज्ञानकी भाँति प्रत्यक्ष होता । जैसे जाग्रत् में 'मैं घटको नहीं जानता' इस प्रकार अज्ञानका प्रत्यक्ष होता है।' तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उस समय जो अज्ञानादिकी प्रतीति नहीं होती उसमें कारण यह है कि उस समय उनका अभिव्यञ्जक नहीं है । यदि कहिए कि अभिव्यञ्जकका प्रभाव कैसे हुआ ? तो सुनिए
बाह्यां वृत्तिमनुत्पाद्य व्यक्तिः स्यान्नाऽहमो यथा । asन्तःकरणं तद्वत् ध्वान्तस्य व्यक्तिराञ्जसी ॥ ५८ ॥ जैसे बाह्य वृत्तिका उत्पादन किए बिना अहङ्कारको अभिव्यक्ति नहीं होती, वैसे ही बिना अन्तःकरण के अज्ञानकी प्रतीति स्पष्टरूपसे नहीं हो सकती ॥ ५८ ॥
कश्चिदतिक्रान्तं प्रतिस्मृत्य 'दृश्यत्वादहमप्येवं लिंङ्ग स्याद्रष्टुरात्मनः' इति निर्मुक्तिकमभिहितमित्याह । किं कारणम् ? अहं तज्ज्ञात्रोर्विवेकाऽप्रसिद्धेः । यथेह घटदेवदत्तयोर्ग्राह्यग्राहकत्वेन स्फुटतरो विभागः प्रसिद्धो लोके न तथेहाऽहङ्कारतज्ज्ञात्रोर्विभागोऽस्तीति । तस्माद साध्वेतदभिहितमिति । अत्रोच्यते
दादाहकतैकत्र यथा ज्ञेयज्ञात कतैवं
स्याद्वह्रिदारुणोः । स्यादहंज्ञात्रोः परस्परम् ।। ५९ ।
दोनोंमें भेद प्रतीत नहीं
कोई वादी पहले कही हुई बातों को भूलकर कहता है कि "इस प्रकार दृश्यत्व तुल्य होनेसे अहङ्कार भी द्रष्टा आत्माका ज्ञापक है" यह बात जो पहले कही गयी है, वह युक्तिशून्य है । कारण अहङ्कार और उसके द्रष्टा साक्षी, इन होता । जैसे इस लोक में घटादि पदार्थोंका, जो कि दृश्य हैं, उनसे उनका द्रष्टा जो देवदत्त है, इन दोनोंका परस्पर भेद प्रसिद्ध है । वैसे ही अहङ्कार और साक्षीका विवेक प्रसिद्ध नहीं है ? इसका उत्तर देते हैं
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जैसे दाह्यत्व और दाहकत्व एक ही जगह, वह्नि और काठ में मालूम पड़ता है है, ऐसे ही अहङ्कार और साक्षीका परस्पर ज्ञातृज्ञेयभाव एकत्र मालूम पड़ता है । इस कथनका तात्पर्य यह है कि यद्यपि मैं देखता हूँ, सुनता हूँ, इत्यादि प्रतीतिमें