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द्विगर्व ( डुगर ) देश के कवि भूप गुवर्धनचंद शकुन सब होवन लागे। लपि पावत घर कंव विरह दूखन सब भागे। दत्त फुरी दृग वाम उरुज बाई भुज फरकी ।
घर घर करत सिँगार चार नारी हरिपुर की ॥४४॥ भावार्थ-देवीचंद (राजा विलासपुर) के विदा होने और जसुमाल (जसुअापति अभिरायसिंह) के मिलने पर गुलेर की युवतियों श्रृंगार करने लगी कि उनके पति अब माएँगे; उनकी सारी कामनाएँ पूरी होंगी। वे दिन-रात यही विचारकर चित्त लगाकर वरदायिनी भगवती की आराधना करती थीं। भगवती ने वरदान दिया, जिसको सुनकर हरिपुर (गुलेर) की युवतियों को पानंद हुमा। जब राजा गुवर्धनचंद (गुलेरपति) का मागमन सुना तब अच्छे अच्छे शकुन होने लगे। कंत के घर पाने से सारे दुःख मिट गए; बाई आंख और भुजा फरकने लगी। इस कारण घर घर हरिपुर में श्रृंगार होने लगा।
आगे चलकर कवि ने जम्मू की डोगरी भाषा में एक कवित्त वृजराजदेव की रानियों की तरफ से लिखा है। यथा
कवित्त ठंडे ठंडे पाणी जिन्हें पीते बर्फाणी, कहूँ।
तो हियादा पाणी हुन चेते कुस पाउँदा । मीठे मीठे वाली जिन्हें चूपे ग्रंब पंजले दे,
कुथे खरबूजा हुवा उदे मन भाउँदा । लिखी लिखी थके नैन पक्वे राह दिखी दिखी,
दत्त भने नाऐं छेल छोडी कुण पाउँदा । पई बरसात न उन्हा मनात,
वदउँदे बख केसकी प्रासाडा मन पाऊँदा ॥४५॥ भावार्थ-वृजराजदेव की रानी अपनी डोगरी भाषा में लिखती है कि जिन्होंने बर्फ के सर्द पानी पिए उनको तवी नदी (जम्मू
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