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शब्द-शक्ति का एक परिचय
४३६ टपकती है। यही काकु-सिद्ध व्यंजना कहलाती है। इसी प्रकार वाक्य-वैशिष्टय, वाच्यार्थ-वैशिष्ट्य, किसी दूसरे का सामीप्य, प्रस्ताव अर्थात् प्रकरण और देश-काल मादि का वैशिष्टय भी पार्षी व्यंजना का हेतु होता है। इन हेतुओं के अनुसार पहले गिनाए हुए वीन मेदों के अनेक भेद हो सकते हैं; जैसे, वक्तृवैशिष्टय से प्रयुक्त वाच्यसंभवा को ( जिसका उदाहरण 'संध्या हो गई...' में मा चुका है) वाच्य-संभवा-वक्तृ-वैशिष्टय-प्रयुक्ता कह सकते हैं। फिर बोधव्य से होनेवाली को वाच्य-संभवा-बोधन्य-वैशिष्टय-प्रयुक्ता कहेंगे। इसी प्रकार और और वैशिष्टयों से अन्य भेद हो जायेंगे, पर प्रधान भेद तीन ही होते हैं, क्योंकि प्रार्थी व्यंजना का प्राधारस्वरूप अर्थ तीन ही प्रकार का होता है। - प्रार्थी व्यंजना के संबंध में एक बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए। इसका व्यापार प्रधानत: अर्थनिष्ठ होता है पर शब्द सदा सहकारी कारण रहता है। प्रार्थी व्यंजना को प्रतीत करानेवाला अर्थ स्वयं शब्द के द्वारा अभिहित, लक्षित अथवा व्यंजित होता है। अत: शब्द का सहकारी कारण होना स्पष्ट है। यह भ्रम कमी न होना चाहिए कि प्रार्थो व्यंजना शब्द की शक्ति नहीं है। वास्तव में देखा जाय तो शन्द से बाधित होकर प्रर्थ व्यापार करता है और शब्द भी प्रर्थ का सहारा लेकर ही ( व्यंजना) न्यापार करता है-दोनों का अन्योन्याश्रय संबंध है। निष्कर्ष यह है कि शादी व्यंजना में पहले शब्द में व्यंजन-व्यापार होता है फिर उसके अर्थ में भी वही क्रिया होती है-इस प्रकार दोनो मिलकर काम करते हैं, पर शन्द की प्रधानता होने के कारण व्यंजना
(.) सम्बप्रमायचोऽर्थो म्यनत्त यर्यान्तरं यतः । अर्यसम्पजकरवे तदस्य सहकारिता ॥
(का. प्र०, ३।२३)
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