Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 16
Author(s): Shyamsundardas
Publisher: Nagri Pracharini Sabha

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Page 58
________________ ४४० नागरीप्रचारिणी पत्रिका शाब्दी कहलाती है। इसी प्रकार जब व्यंजना की क्रिया पहले अर्थ में होती है और पीछे से शब्द में, तो ऐसी क्रिया प्रार्थी व्यंजना मानी जाती है। ____यदि अर्थ के विचार से व्यंजना के भेद किए जायँ तो अनेक हो सकते हैं। कई लोग वस्तु-व्यंजना, अलंकार-व्यंजना और भाव-व्यंजना-ये तीन भेद मानते हैं, पर अर्थ की दृष्टि से ध्वनि के इक्यावन भेद-प्रभेद भी व्यंजना के अंतर्गत आ जायेंगे। काव्य के उत्तम, मध्यम आदि होने का विचार भी व्यंजना के भीतर पा सकता है। साहित्य अर्थात् कवि-निबद्ध वाङ्मय में चारों और व्यंजना की ही लीला तो दृष्टिगोचर होती है। अत: व्यंजना. व्यापार के भेदों का विवेचन करना ही यहाँ समीचीन समझा गया है। मम्मट, विश्वनाथ आदि प्राचार्यों ने भी व्यंजना के प्रकरण में ध्वनि और रस का प्रतिपादन नहीं किया है। व्यंजना उनके मूल में अवश्य रहती है। ये सब व्यंजना के ही फल तो हैं । उपसंहार इस प्रकार संक्षेप में शब्द-शक्ति के व्यावहारिक स्वरूप का दर्शन कर लेने पर हमें दो बातों पर और ध्यान देना चाहिए। वैयाकरणों ने शब्द के पारमार्थिक और दार्शनिक रूप की व्याख्या की है। उन्होंने उसकी सच्ची शक्ति का दर्शन किया है। व्यवहार में वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक शब्द ही सामने आता है पर वास्तविक शक्ति इस अनित्य ( भौतिक वायु से उत्पन्न ) और प्रयोग में अभि. ज्वलित शब्द में नहीं रहती। शक्ति–तीनों में से किसी भी प्रकार की शक्ति-शब्द के अव्यक्त रूप में रहती है। उस अव्यक्त रूप को वैयाकरण स्फोट कहते हैं। उनके अनुसार स्फोटर ही शब्द (-२)-देखो महाभाष्य...'ध्वनिः शब्दः' और 'स्फोटः शब्दः । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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