Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 16
Author(s): Shyamsundardas
Publisher: Nagri Pracharini Sabha

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Page 68
________________ ४५० नागरीप्रचारिणी पत्रिका आवश्यकता न पड़े, किसी अन्य देवी-देवता की तो बात ही क्या ? आत्म-रक्षा के लिये मनुष्य ने न जाने किसकी किसकी उपासना की, पर उसे सुख-संतोष कहीं नहीं मिला। अंत में शिथिल हो उसने किसी परमेश्वर की शरण ली और उसके प्रसाद एवं संयोग के लिये तड़पना प्रारंभ किया। उसने दिव्य दृष्टि से देख लिया कि वास्तव में उसके अतिरिक्त इस प्रपंच में और कुछ भी नहीं है। वही सब कुछ है और सब कुछ उसी का रूप है। अद्वैत की इस भावना से वह आगे न बढ़ सका। उसके परमेश्वर भी उसी में लीन हो गए और वह ब्रह्म बन गया। अमृत और आनंद हो गया। अमृत एवं प्रानंद की कामना से मनुष्य अन्य प्राणियों से आगे बढ़ा। उसने देखा कि रति, प्रजाति और आनंद का विधान स्त्रीपुरुष के सहज-संबंध में निहित है। प्रारंभ में शायद उसको इस बात का पता न था कि जनन सृष्टि की एक सामान्य क्रिया है। अपनी शक्ति की कमी का अनुभव कर उसकी पूर्ति के लिये मनुष्य ने किसी अलौकिक शक्ति का पता लगा लिया था। उसने मान लिया था कि संतान का उदय किसी देवता का प्रसाद है। संतानों के मंगल के लिये उसने उचित समझा कि सर्वप्रथम संतान को उस देवता को चढ़ा दे जिसकी कृपा से उसे सुख और संतोष मिलता है और जिसके कोप से सर्वनाश हो जाता है। ___मनुष्य ने देखा कि स्त्री-पुरुष के सहज संबंध में जो सुख मिलता है उसकी कामना उसके देवता को भी अवश्य होगी। यदि उसके देवता को उसकी जरूरत न होती तो वह उसके सुख में दुःख उपस्थित कर किसी प्राणी को उसके बीच से उठा क्यों ले जाता और निधन के अनंतर भी स्वप्न में उन प्राणियों का दर्शन उसे क्यों होता। अतः मनुष्य ने उचित समझा कि प्रथम संतान' को अपने (१) प्रथम प्रसव को किसी देवता पर चढ़ाने की प्रथा अजीब नहीं । भारत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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