Book Title: Mool me Bhool
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 7
________________ मूल में भूल निकलता है, उसीप्रकार स्वयं ज्ञान में विचार करके समझे तो यथार्थ तत्त्व प्राप्त हो। जैसे घर का आदमी चाहे जितनी नरम रोटी बनावे; किन्तु वह कहीं खिला नहीं देता, वह तो उसे स्वयं खाना होता है; इसीप्रकार श्री सद्गुरुदेव चाहे जैसी सरल भाषा में कहें, किन्तु भाव तो स्वयं ही समझना होगा। तत्त्व को समझने के लिए अपने में विचार करना चाहिए। जिन्हें केवलज्ञान और केवलदर्शन रूपी आत्मलक्ष्मी प्रकट हुई है - ऐसे श्री वीतराग परमात्मा को नमस्कार करके उनकी कही गई बात को न्याय की सन्धि से मैं (भैया भगवतीदास) युक्तिपूर्वक उपादान-निमित्त के संवाद के रूप में कहता हूँ॥१॥ -प्रश्नपूछत है कोऊ तहाँ, उपादान किह नाम । कहो निमित्त कहिये कहा, कबके है इह ठाम ।।२।। अर्थ :- यहाँ कोई पूछता है कि उपादान किसका नाम है, निमित्त किसे कहते हैं और उनका सम्बन्ध कब से है, सो कहो ? उपादान का अर्थ क्या है ? - यह बहुत से लोग नहीं जानते । हिसाब की बहियों में भी उपादान का नाम नहीं आता है। दया इत्यादि करने से धर्म होता है - यह तो बहुत से लोग सुनते और मानते हैं, किन्तु यह उपादान क्या है और निमित्त क्या है ?- इसका स्वरूप नहीं जानते; इसलिए उपादान और निमित्त का स्वरूप इस संवाद में बताया गया है। दही के होने में दूध उपादान है और छाछ निमित्त है। दही दूध में से होता है, छाछ में से नहीं होता। यदि छाछ में से दही होता हो तो पानी में छाछ डालने से भी दही हो जाना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता । इसीप्रकार शिष्य के आत्मा की पर्याय बदलकर मोक्ष होता है। कहीं गुरु की आत्मा बदलकर शिष्य की मोक्षदशा के रूप में नहीं हआ जाता। शिष्य का आत्मा अपना उपादान है। वह स्वयं समझकर मुक्त होता है, किन्तु गुरु के मूल में भून आत्मा में शिष्य की कोई अवस्था नहीं होती। उपादान = 'उप+आदान' उप का अर्थ है - समीप और आदान का अर्थ है - ग्रहण होना । जिस पदार्थ के समीप में से कार्य वा ग्रहण हो, वह उपादान है और उससमय जो परपदार्थ की अनुकूल उपस्थिति हो, सो निमित्त है।।२।। ___ अब शिष्य प्रश्न पूछता है - (कोई विरला जीव ही तत्त्व के प्रश्नों को पूछने के लिए खड़ा होता है। जिसे प्यास लगी होती है, वही पानी की प्याऊ के पास जाकर खड़ा होता है; इसीप्रकार जिसे आत्मस्वरूप को समझने की प्यास लगी है और उस ओर की जिसे आन्तरिक आकांक्षा है, वही जीव सत्समागम से पूछता है।) हे प्रभु ! आप उपादान किसे कहते हैं और निमित्त किसे कहते हैं वे उपादान तथा निमित्त एक स्थान पर कब से एकत्रित हुए हैं? दोनों का संयोग कब से है ? ऐसे जिज्ञासु शिष्य के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि - उपादान निज शक्ति है, जिय को मूल स्वभाव । है निमित्त पर योग तैं, बन्यो अनादि बनाव ।।३।। अर्थ : - उपादान अपनी निजशक्ति है। वह जीव का मूल स्वभाव है और पर संयोग निमित्त है, उनका सम्बन्ध अनादिकाल से बना हुआ है। यहाँ पर कहा गया है कि जीव का मूल स्वभाव उपादान है; क्योंकि यहाँ पर जीव की ही बात लेनी है, इसलिए यह बताया है कि जीव की मुक्ति में उपादान क्या है और निमित्त क्या है ? जीव का मूल स्वभाव उपादान के रूप में लिया गया है। यहाँ पर समस्त द्रव्यों की सामान्य बात नहीं है; किन्तु विशेष जीवद्रव्य की मुक्ति की ही बात है। ___ जीव की पूर्ण शक्ति उपादान है यदि उसकी पहचान करे तो सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्ररूप उपादान कारण प्रकट हो और मुक्ति प्राप्त हो ! जीव का मूल

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