Book Title: Mool me Bhool
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 32
________________ मुल में भूल भी छोड़कर, अपने अखण्डानन्दी आत्मस्वभाव की भावना करके, सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक जो अन्तरंग में स्थिरता करता है, वही जीव मुक्ति को पाता है और वही परमानन्द को भोगता है। निमित्त के लक्ष्य से आनन्दानुभव नहीं हो सकता। जो निमित्त की दृष्टि में रुक जाते हैं, वे मुक्ति को नहीं पाते - इसप्रकार निमित्त के बलवान होने का तर्क खण्डित हो गया। निमित्त कहता है - कहै निमित्त हमको तर्जें, ते कैसे शिव जात । पंच महाव्रत प्रकट है, और ह क्रिया विख्यात ।।३०।। अर्थ :- निमित्त कहता है कि मुझे छोड़कर कोई मोक्ष कैसे जा सकता है ? पंचमहाव्रत तो प्रकट हैं ही और दूसरी क्रियायें भी प्रसिद्ध हैं, जिन्हें लोग मोक्ष का कारण मानते हैं। ___ शास्त्रों में तो निमित्त के पक्ष में शास्त्रों के पृष्ठ के पृष्ठ भरे पड़े हैं, तब फिर आप निमित्त की सहायता से इन्कार कैसे करते हैं ? पंच महाव्रत, समिति, गुप्ति इत्यादि का शास्त्रों में विशद् वर्णन है। क्या उनको धारण किए बिना जीव मोक्ष को जा सकता है। मुझे छोड़कर जीव मोक्ष जा ही नहीं सकता। अहिंसादि पंच महाव्रत में पर का लक्ष्य करना होता है या नहीं? ___पंच महाव्रत में पर लक्ष्य को लेकर जो राग का विकल्प उठता है, उसे आगे रखकर निमित्त कहता है कि क्या पंच महाव्रत के राग के बिना मुक्ति होती है ? बात यह है कि पंच महाव्रत के शुभराग से मुक्ति को माननेवाले अज्ञानी बहुत हैं, इसलिए निमित्त ने तर्क उपस्थित किया है। तर्क सभी रखे ही जाते हैं। यदि ऐसे विपरीत तर्क न हों तो जीव का संसार कैसे बना रहे ? (ये सब निमित्ताधीन तर्क संसार को बनाये रखने के लिए ठीक हैं अर्थात् निमित्ताधीनदृष्टि से संसार टिका हुआ है।) यदि निमित्ताधीनदृष्टि मुल में भूल को छोड़कर स्वभावदृष्टि करें तो संसार नहीं टिक सकता। उपादान का उत्तर - पंच महाव्रत जोग त्रय, और सकल व्यवहार । पर कौ निमित्त खपाय के, तब पहुँचे भवपार ।।३१।। अर्थ :- उपादान कहता है पंच महाव्रत, तीन योग (मन, वचन, काय) की ओर का जोड़ान और समस्त व्यवहार तथा पर निमित्त के लक्ष्य को दूर करके ही जीव भव से पार होता है। ज्ञानमूर्ति आत्मा का जितना पर लक्ष्य होता है, वह सब विकार भाव है; भले ही पंच महाव्रत हों, किन्तु वे भी विकार हैं। वह विकारभाव तथा अन्य जो-जो व्यवहारभाव हैं, वे सब राग को और निमित्त को स्वलक्ष्य द्वारा जीव जब छोड़ देते हैं, तब ही वह मोक्ष को पाता है। पुण्य-पापरहित आत्मस्वभाव की श्रद्धा, ज्ञान और स्थिरता के द्वारा ही मुक्ति होती है, उसमें कहीं भी राग नहीं होता। पंच महाव्रत आस्रव हैं, विकार हैं; वह आत्मा का यथार्थ चारित्र नहीं है। जो उसे चारित्र का यथार्थ स्वरूप मानता है, वह मिथ्यादृष्टि है। आत्मा का चारित्र धर्म उससे परे है। जगत के अज्ञानी जीवों को यह अति कठिन लग सकता है, किन्तु वही परम सत्य, महा हितकारी है। प्रश्न : पंच महाव्रत चारित्र भले न हो, किन्तु वह धर्म तो है या नहीं उत्तर : पंच महाव्रत न तो चारित्र है और न धर्म ही। सर्वप्रकार से राग से रहित मात्र ज्ञायक स्वभावी आत्मा की सम्यक् प्रतीति करने के बाद ही विशेष स्वरूप की स्थिरता करने से पूर्व पंच महाव्रत के शुभ विकार का भाव मुनिदशा में आ जाता है; किन्तु वह विकल्प है, राग है, विकार है: धर्म नहीं है क्योंकि वे भाव आत्मा के शुद्ध चारित्र केवलज्ञान को रोकते हैं। आत्मा के गुण को रोकनेवाले भावों में जो धर्म मानता है, वह आत्मा के पवित्र गुणों का घोर अनादर कर रहा है, उसे आत्मप्रतीति

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