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मूल में भूल
सम्यग्दर्शन भये कहा, त्वरित मुक्ति में जाहिं ? आगे ध्यान निमित्त है, ते शिव को पहुँचाहिँ ।। ३८ ।।
अर्थ :- सम्यग्दर्शन होने से क्या जीव तत्काल मोक्ष में चला जाता है ? नहीं, आगे भी ध्यान निमित्त है, जो मोक्ष में पहुँचाता है। यह निमित्त का तर्क है।
निमित्त कहता है कि यह सच है कि सम्यग्दर्शन से ही जीव को सुख का उपाय प्रकट होता है। सम्यग्दर्शन से मुक्ति का उपाय होता है, लेकिन निमित्त के लक्ष्य से रागादि भाव से मोक्ष का उपाय नहीं होता है - इसप्रकार पंच महाव्रत की क्रिया से धर्म होता है, देव-शास्त्र-गुरु अथवा पुण्य से लाभ होता है, तीर्थंकर प्रकृति का भाव अच्छा है - इसप्रकार की विपरीत मान्यताओं का तर्क निमित्त ने अब छोड़ दिया है, किन्तु ऊपर की दशा में निमित्त का आधार है - ऐसा तर्क करता है।
सम्यग्दर्शन के बाद भी निमित्त बलवान है, मात्र सम्यग्दर्शन से ही मुक्ति नहीं हो जाती । सम्यग्दर्शन के बाद ही ध्यान करना पड़ता है, उस ध्यान में भेद का विकल्प उठता है, राग होता है; इसलिए वह भी निमित्त हुआ या नहीं ? आत्मा की यथार्थ पहिचान होने के बाद स्थिरता होने पर भले ही महाव्रतादि के विकल्प को छोड़ दे, किन्तु वस्तु को ध्यान में रखना पड़ता ही है। वस्तु में स्थिरता करते हुए राग मिश्रित विचार आये बिना नहीं रहेंगे, इसलिए राग भी निमित्तरूप हुआ या नहीं ? देखिये, निमित्त कहाँ तक जा पहुँचा ? अन्त तक निमित्त की आवश्यकता होती है। इससे सिद्ध हुआ कि निमित्त ही बलवान है। निमित्त का यह अन्तिम
तर्क है।
निमित्त ने जो तर्क उपस्थित किया है, वह नय आदि के विकल्प के पक्ष का तर्क है। सम्यग्दर्शन के बाद स्थिरता करते हुए बीच में भेद का विकल्प आये बिना नहीं रहता। बीच में विकल्परूप व्यवहार आता है -
मूल में भूल
यह बात सच है, किन्तु वह विकल्प मोक्षमार्ग में किंचितमात्र भी सहायक नहीं है; निमित्त दृष्टिवाला तो उस विकल्प को मोक्षमार्ग समझ लेता है, वही दृष्टि की 'मूल में भूल' है ।
आत्मस्वभाव की दृष्टिवाला जीव अभेद के पक्ष से समझता है अर्थात् भेद होता है अथवा राग होता है, उसे वह जानता है; किन्तु मोक्षमार्ग के रूप में अथवा मोक्षमार्ग के सहायक के रूप में उसे वह स्वीकार नहीं करता और निमित्त को पकड़कर अज्ञानी जीव भेद के पक्ष से बात करता है। उसे अभेद स्वभाव का भान नहीं है, इसलिए वह मानता है कि ध्यान करते हुए बीच में भेद भंग का विकल्प आये बिना नहीं रहता; इसलिए वह विकल्प ही ध्यान में सहायक है। इसप्रकार ज्ञानी और अज्ञानी की दृष्टि में ही अन्तर है।
स्वाश्रय सन्मुख होकर ज्ञान में एकाग्र होना ध्यान है, एक गुण को लक्ष्य में लेकर विचार करना, सो भेद भंग है। यह भेद भंग बीच में आता ही है, इसलिए उस भेद के राग की सहायता से ही मोक्ष होता है। यह निमित्त का तर्क है। इस तर्क में पर से कोई संबंध नहीं रखा। अब तो भीतर जो विकल्परूप व्यवहार बीच में आता है, उस व्यवहार को जो अज्ञानी मोक्षमार्ग के रूप में मानता है, उसी का यह तर्क है।
उपादान निमित्त के तर्क का खण्डन करता है - छोर ध्यान की धारणा, मोर योग की रीत तोरि कर्म के जाल को, जोर लई शिव प्रीत ।। ३९ ।। अर्थ :- उपादान कहता है कि ध्यान की धारणा को छोड़कर, योग की रीत को समेट कर, कर्म जाल को तोड़कर जीव अपने पुरुषार्थ के द्वारा शिव पद की प्राप्ति करते हैं।
हे निमित्त ! जो भेद का विकल्प उठता है, उसे तू मोक्ष का कारण कहता है, किन्तु वह तो बन्ध का कारण है। जब जीव उस विकल्प को