Book Title: Mool me Bhool
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 50
________________ निमित्त का लक्ष्य छोड़ देते हैं, वे सिद्धस्वरूप को प्राप्त होते हैं । इस गाथा को उलटकर कहा जाये तो - उपादाननो भाव लई, ये जे तजे निमित्त । पामे ते सिद्धत्वने रहे, स्वरूप मां स्थित ।। उपादान का भाव ले, यदि यह तजे निमित्त । पाये वह सिद्धत्व को, रहे स्वरूप में स्थित ।। अज्ञानी जीव सत् निमित्त को नहीं जानता और उपादान को भी नहीं जानता, वह जीव तो अज्ञानी ही रहता है; किन्तु जो जीव अपने उपादान स्वभाव के स्वतंत्र भावों को पहचानकर उस स्वभाव की एकाग्रता के द्वारा निमित्त के लक्ष्य को छोड़ देते हैं, वे जीव अपने स्वरूप में स्थित रहते हैं, उनकी भ्रान्ति का और राग का नाश हो जाता है और वे केवलज्ञान को प्राप्त कर मुक्त हो जाते हैं। जो जीव उपादान-निमित्त के स्वरूप को नहीं जानता और मात्र उपादान की बातें करता है तथा सच्चे निमित्त को जानता ही नहीं. वह पापी है। यहाँ पर यह आशय नहीं है कि 'निमित्त से कोई कार्य होता हैं', किन्तु यहाँ अपने भाव को समझने की बात है। जब जीव के सत् निमित्त के समागम का भाव अन्तर से नहीं बैठा और स्त्री, पैसा इत्यादि के समागम का भाव जम गया, तब उसे धर्म के भाव का अनादर और संसार की ओर के विपरीत भाव का आदर हो जाता है। अपने में वर्तमान तीव्र राग है, तथापि वह उस राग का विवेक नहीं करता, (शुभाशुभ के बीच व्यवहार से भी भेद नहीं करता) वह जीव विपरीत भाव का ही सेवन करता है। वह विपरीत भाव किसका ? क्या तू वीतरागी हो गया है ? यदि तुझे विकल्प और निमित्त का लक्ष्य ही न होता तो तुझे शुभ निमित्त के भी लक्ष्य मुल में भूल का प्रयोजन न होता, किन्तु जब विकल्प और निमित्त का लक्ष्य है, तब तो उसका अवश्य विवेक करना चाहिए। इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि निमित्त से कोई हानि-लाभ होता है, परन्तु अपने भाव का उत्तरदायित्व स्वयं स्वीकार करना होगा। जो अपनी वर्तमान पर्याय के भाव को और उसके योग्य निमित्तों को नहीं पहचानता, वह त्रैकालिक स्वभाव को कैसे जानेगा? जीव या तो निमित्त से कार्य होता है यह मानकर पुरुषार्थहीन होता है अथवा निमित्त का और स्व पर्याय का विवेक भूल कर स्वच्छन्द हो जाता है। ये दोनों विपरीत भाव हैं। ये विपरीत भाव ही जीव को उपादान की स्वतंत्रता नहीं समझने देते। यदि जीव विपरीत भाव को दूर करके सत् को समझे तो उसे मोक्षमार्ग होता है । जब जीव अपने भाव से सत् को समझे, तब सत निमित्त होते ही हैं। क्योंकि जिसे सत् स्वभाव के प्रति बहमान है, उसे सत् निमित्तों की ओर का लक्ष्य और बहुमान हो ही जाता है। जिसे सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के प्रति अनादर है, उसे मानो अपने सत् स्वरूप के प्रति अनादर है और सत् स्वरूप का अनादर ही निगोद भाव है, उस भाव का फल निगोददशा है। इसलिए जिज्ञासुओं को सभी पहलुओं से से उपादान-निमित्त को जैसे हैं उसप्रकार ठीक जानकर निश्चय करना चाहिए। यह निश्चय करने पर पराधीनता की मान्यता का खेद दूर हो जाता है और स्वाधीनता का सच्चा सुख प्रगट होता है। ग्रन्थकर्ता का नाम और स्थान - नगर आगरा अग्र है, जैनी जन को वास । तिह थानक रचना करी, 'भैया' स्वमति प्रकाश ।।४६।। अर्थ :- आगरा शहर अग्रगण्य नगरों में से है, जिसमें जैन लोगों का (अच्छी संख्या में) निवास है। वहाँ पर भैया भगवतीदास ने अपनी

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