Book Title: Mool me Bhool
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 53
________________ मूल में भूल है)। जहाँ ऐसा निश्चय मोक्षमार्ग होता है, वहाँ सद्गुरु का निमित्तरूप व्यवहार होता ही है, किन्तु ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग तो अकेले उपादान से ही होता है। आत्मा देहादि पर संयोगों से भिन्न है, दया इत्यादि की शुभ भावना और हिंसा इत्यादि की अशुभ भावना - दोनों विकार हैं, आत्मा के स्वरूप नहीं हैं। इसप्रकार पर से और विकार से भिन्न आत्मा के शुद्ध स्वरूप की श्रद्धापूर्वक ज्ञान आत्मा की आँख है और पुण्य-पाप के विकार से रहित स्थिरता रूप क्रिया चारित्र है; इसप्रकार ज्ञान और चारित्र दोनों मोक्ष के उपाय हैं। पहले ज्ञानरूपी आँखों से मोक्ष के मार्ग को जाने बिना वह मोक्षमार्ग में कैसे चलेगा ? आत्मा के स्वभाव को जाने बिना पुण्य में मोक्षमार्ग मानकर अज्ञानभाव से संसार में ही चक्कर लगायेगा। पहले शुद्धात्मा के ज्ञानपूर्वक मोक्षमार्ग को जाने और फिर उसमें स्थिर हो तो मोक्ष प्राप्त होता है। जीव अपने उपादान से जब ऐसे मोक्षमार्ग को प्रकट करता है, तब सद्गुरु निमित्तरूप होते हैं - यह व्यवहार है। उपादान अर्थात् निश्चय और निमित्त अर्थात् व्यवहार । उपादान तो स्व है और निमित्त पर है अर्थात् स्व निश्चय है और पर व्यवहार है। जो द्रव्य स्वयं कार्यरूप होता है, वह द्रव्य कार्य में निश्चय है और जब स्वयं कार्यरूप हो रहा हो, तब अनुकूल पर वस्तु के ऊपर 'निमित्त' का आरोप करना. सो व्यवहार है। इसप्रकार निमित्त केवल उपचारमात्र है। इस सम्बन्ध में श्री पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश में कहा है कि - नाज्ञो विज्ञत्वमायाति विज्ञो नाज़त्मृच्छति । निमित्तमात्रमन्यस्तु गतेधर्मास्तिकायवत् ।।३५।। अर्थ :- अज्ञानी जीव (पर से) ज्ञानी नहीं हो सकता, इसीप्रकार ज्ञानी जीव (पर के द्वारा) अज्ञानी नहीं हो सकता, दूसरे तो निमित्तमात्र होते हैं। जैसे अपनी शक्ति से चलते हुए जीव और पुद्गलों के लिए मूल में भून धर्मास्तिकाय निमित्त है, उसीप्रकार मनुष्य स्वयं ज्ञानी अथवा अज्ञानी होता है, उसमें गुरु इत्यादि निमित्तमात्र हैं। 'धर्मास्तिकायवत्' अर्थात् सभी निमित्त धर्मास्तिकाय के समान हैं। इस एक वाक्य में ही निमित्त की उपादान में सर्वथा अकिंचित्करता बता दी गई है। जैसे धर्मास्तिकाय सदा सर्वत्र विद्यमान है, किन्तु जो पदार्थ स्वयं गतिरूप परिणमन करते हैं. उनके लिए धर्मास्तिकाय पर निमित्त का आरोप आता है और जो पदार्थ-स्थितिरूप होते हैं, उनके लिए धर्मास्तिकाय पर निमित्त का आरोप नहीं होता। इसप्रकार यदि पदार्थ गतिरूप परिणमन करे तो धर्मास्तिकाय को निमित्त कहा जा सकता है और यदि गति न करे तो निमित्त नहीं कहा जाता। धर्मास्तिकाय तो दोनों में मौजूद है, वह कहीं पदार्थों को चलाता नहीं है; किन्तु यदि पदार्थ गति करता है तो मात्र आरोप से उसे निमित्त कहा जाता है। इसीप्रकार समस्त निमित्तों को धर्मास्तिकाय की तरह ही समझना चाहिए। कमल खिलता है, उसमें सूर्य निमित्त है अर्थात् यदि कमल स्वयं खिले तो सर्य पर निमित्तारोप आता है और यदि कमल न खिले तो सूर्य पर निमित्तारोप नहीं आता। कमल के कार्य में सूर्य ने कुछ भी नहीं किया, वह तो धर्मास्तिकाय की तरह मात्र उपस्थित होता है। यथार्थ ज्ञान में गुरु का निमित्त है अर्थात् यदि जीव स्वयं यथार्थ वस्तु को समझ ले तो गुरु पर निमित्त का आरोप आता है और यदि जीव स्वयं यथार्थ को नहीं समझता तो गुरु को निमित्त नहीं कहा जाता । गुरु किसी के ज्ञान में कुछ करता नहीं है, वह तो मात्र धर्मास्तिकाय की तरह उपस्थित रहता है। मिट्टी से घड़ा बनता है, उसमें कुम्हार निमित्त है अर्थात् मिट्टी स्वयं घड़े के रूप में परिणमित हो तो कुम्हार पर निमित्त का आरोप होता है

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