Book Title: Mool me Bhool
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 47
________________ मूल में भूल केवल बकवाद रूप मालूम होगा। जो जिसकी महिमा को जानता है, वह तत्संबंधी बात को बड़े ही चाह से सुनता है; परन्तु जिसकी महिमा को नहीं जानता है, उसकी बात नहीं रुचती । इस संबंध में यहाँ एक दृष्टान्त दिया जाता है - पहले जमाने में जब बेलदार लोग सारे दिन मजूदरी करके घर आते और सब एकत्रित होकर बैठते, तब उससमय उनका पुरोहित उन्हें उनके बाप दादाओं की पुरानी कथा सुनाता हुआ कहने लगता कि तुम्हारी चौथी पीढ़ी का बाप तो बहुत बड़ा राज्याधिकारी था। बेलदार लोग तो सारे दिन मजूदरी करने से थके होते थे, इसलिए जब पुरोहित उनके बाप-दादाओं की बात करता, तब वे झोके खाने लगते और पुरोहित से कहने लगते कि “हाँ बापू ! कहते जाइये” जब बेलदार लोग सुनने पर ध्यान नहीं देते तो पुरोहित कहता कि अरे, जरा सुनो तो, मैं तुम्हारे बाप-दादाओं की बड़प्पन की बात कह रहा हूँ, तब बेलदार लोग कहते कि हाँ महाराज ! कहते जाइये अर्थात् आप तो अपनी बात कहते जाइये, तब पुरोहित कहता अरे भाई ! यह तो तुम्हें सुनाने के लिए कह रहा हूँ, मुझे तो सब मालूम ही है। इसीप्रकार यहाँ पर संसार की थकान से थके हुए जीवों को ज्ञानी गुरु उनके स्वभाव की अपूर्व महिमा बतलाते हैं, परन्तु जिसे स्वभाव की महिमा की खबर नहीं है और स्वभाव की महिमा की रुचि नहीं है। उन बेलदार जैसे जीवों को स्वभाव की महिमा सुनने की उमंग नहीं होती अर्थात् उनके लिए क्या तो उपादान और क्या निमित्त और क्या वस्तु की स्वतंत्रता - यह सब बकवाद - सा ही मालूम होता है। वे सब आत्मा की परवाह न करनेवाले बेलदारों की तरह संसार के मजदूर हैं। ज्ञानी कहते हैं कि हे भाई ! तेरा स्वभाव क्या है ? विकार क्या है ? और वह विकार कैसे दूर हो सकता है ? - यह तुझे समझाते हैं। इसलिए तू अपनी स्वभाव की महिमा मूल में भूल को जानकर विवेकपूर्वक समझ तो तेरा संसारपरिभ्रमण का दुःख दूर हो जायेगा और तुझे शान्ति प्राप्त होगी, यह तेरे ही सुख के लए कहा जा रहा है और तेरे ही स्वभाव की महिमा बतलाई जा रही है, इसलिए तू ठीक निर्णय करके समझ । जो जीव जिज्ञासु है, उसे श्री गुरु की ऐसी बात सुनकर अवश्य ही स्वभाव की महिमा प्रकट होती है और वह बराबर निर्णय करके अवश्य समझ लेता है। जिज्ञासु जीवों को इस उपादान निमित्त के स्वरूप को समझने में दुर्लक्ष्य नहीं करना चाहिए। इसमें महान सिद्धान्त निहित है। इसे ठीक समझकर इसका निर्णय करना चाहिए। उपादान - निमित्त की स्वतंत्रता का निर्णय किए बिना कदापि सम्यग्दर्शन नहीं होता । अब अन्त में ग्रन्थकार कहते हैं कि जो आत्मा के गुण को पहचानता है, वही इस संवाद के रहस्य को जानता है - जो जानै गुण ब्रह्म के, सो जानै यह भेद । साख जिनागम सो मिले, तो मत कीज्यो खेद ।। ४५ ।। अर्थ :- जो जीव आत्मा के गुण को (स्वभाव को ) जानते हैं, वे इस (उपादान-निमित्त के संवाद के) रहस्य को जानते हैं । उपादाननिमित्त के इस स्वरूप की साक्षी श्री जिनागम से मिलती है, इसलिए इस सम्बन्ध में खेद नहीं करना चाहिए, शंका नहीं करना चाहिए । उपादान और निमित्त दोनों पदार्थ त्रिकाल हैं, दोनों में से एक भी अभावरूप नहीं है। सिद्धदशा में भी आकाश इत्यादि निमित्त है। अरे ! ज्ञान की अपेक्षा से समस्त लोकालोक निमित्त है। जगत में स्व और पर पदार्थ हैं और ज्ञान का स्वभाव स्व पर प्रकाशक ज्ञायक है; इसलिए यदि ज्ञान स्व-पर को भिन्न-भिन्न और स्वतंत्र न जाने तो वह मिथ्याज्ञान है, इसलिए स्व और पर को जैसा का तैसा जानना चाहिए। उपादान को स्व के रूप में और निमित्त को पर के रूप में जानना ठीक है। दोनों को जो

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