Book Title: Mool me Bhool
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 34
________________ (५८) मुल में भूल उस राग के कारण जीव को नया भव ग्रहण करना पड़ता है, इसलिए निमित्त की कृपा से (राग से) जीव चार गतियों में परिभ्रमण करता है। राग का फल संसार है। यद्यपि तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो - इसप्रकार का आत्म-प्रतीति युक्त राग सम्यग्दर्शन भी हो सकता है, तथापि वह तीर्थंकर नामकर्म के बंध के राग से खुश नहीं होते, प्रत्युत उसे हानि कर्ता ही मानते हैं। जिस भाव से तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है. उस भाव से तीर्थकर पद प्रकट नहीं होता; किन्तु उस भाव के नाश से केवलज्ञान और तीर्थंकर पद प्रकट होता है। निमित्त ने राग की ओर से तर्क उपस्थित किया था और उपादान स्वभाव की ओर से तर्क उपस्थित करता है। सम्यग्ज्ञान के द्वारा इसप्रकार स्पष्टीकरण किया गया है कि निमित्त को लक्ष्य करके होनेवाला तीर्थंकर प्रकृति का राग भाव भव-भ्रमण (संसार) का कारण है और उपादान स्वरूप के लक्ष्य से स्थिरता का होना मोक्ष का कारण है। निमित्त के लक्ष्य से होनेवाला भाव उपादानस्वरूप की स्थिरता को रोकनेवाला है। किसी भी प्रकार का राग भाव संसार का ही कारण है, फिर चाहे वह राग तिर्यंच पर्याय का हो अथवा तीर्थंकर प्रकृति का हो। देखो, श्रेणिक राजा को आत्मप्रतीति थी, तथापि वे राग में अटक रहे थे, इसलिए तीर्थंकर प्रकृति का बंध होने पर भी उन्हें दो भव धारण करना पड़ेंगे। प्रश्न : दो भव ग्रहण करना पड़े - यह भले ही अच्छा न हो, किन्तु जिस भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध करता है, यदि उसी भव से मोक्ष प्राप्त करे तो जिस भाव से तीर्थकर प्रकृति का बंध हुआ, वह भाव अच्छा है या नहीं? उत्तर : सिद्धान्त में अन्तर नहीं पड़ता ? ऊपर कहा गया है कि 'किसी भी प्रकार का राग भाव हो, वह संसार का ही कारण हैं' - भले ही कोई जीव जिस भव से तीर्थंकर प्रकृति का बंध करता है, उसी भव से मुल में भूल मोक्ष जाये, तथापि जिस भाव से तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है, वह रागभाव ही है और वह राग भाव केवलज्ञान और मोक्ष को रोकनेवाला है। जब उस राग को दूर किया जाता है, तब केवलज्ञानी तीर्थंकर होता है। प्रश्न : भले ही तीर्थंकर प्रकृति का राग बुरा हो, किन्तु जिस जीव ने तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया है, उस जीव को केवलज्ञान अवश्य होता ही है। तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने से इतना तो निश्चय हो ही जाता है कि वह जीव केवलज्ञान और मोक्ष को अवश्य प्राप्त करेगा, इसलिए निमित्त का इतना बल तो मानोगे या नहीं? उत्तर : अरे भाई ! केवलज्ञान और मोक्षदशा आत्मा के सम्यग्दर्शनादि गुणों से होती है या जिस भाव से तीर्थंकर प्रकृति का बंध हुआ, उस रागभाव से होती है ? रागभाव से मोक्ष का होना निश्चित नहीं है, किन्तु जिस जीव के सम्यग्दर्शन का अटूट बल है, उसको लेकर वह अल्पकाल में ही मुक्ति को प्राप्त करेगा - यह निश्चित ही है, जो राग से धर्म मानता है और राग से केवलज्ञान का होना मानता है, वह तीर्थंकर प्रकृति तो नहीं बाँधता किन्तु तिर्यंच आदि तुच्छ प्रकृति को बांधता है, क्योंकि उसकी मान्यता में राग के प्रति आदर है; इसलिए वह वीतराग स्वभाव का अनादर करता हुआ अपनी ज्ञानशक्ति को हारकर हलकी गति में चला जायेगा। ___ और फिर यह भी एक समझने योग्य न्याय है कि जिस कारण से तीर्थंकर प्रकृति का बंध हुआ था, उस कारण को दूर किये बिना वह प्रकृति फल भी नहीं देती। जिस तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है, वह तब तक फल नहीं देती जब तक जिस रागभव से तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया था, उससे विरुद्ध भाव के द्वारा उस रागभाव का सर्वथा क्षय करके केवलज्ञान प्रकट किया जाता और वह फल भी आत्मा को नहीं मिलता, किन्तु बाह्य में समवशरणादि की रचना के रूप में प्रकट होता है। इसप्रकार जिस भाव से तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया था, वह भाव तो केवलज्ञान

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60