Book Title: Mool me Bhool
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 36
________________ मूल में भूल आनन्द होता है और निमित्त का आलम्बन दुःख ही है, इसलिए ज्ञानानन्द स्वरूप से परिपूर्ण अपने उपादान की पहचान कर उसके लक्ष्य में एकाग्रता करना, सो परम सुख है और यही मुक्ति का कारण है। कुदेवादिक के लक्ष्य से अशुभभाव के कारण जीव दुःखी होता है, परन्तु सच्चे देव, शास्त्र, गुरु के निमित्त के लक्ष्य से शुभभाव से भी जीव दुःखी होता है, जो ऐसा कहा है तो हे उपादान ! जीव सुखी किस रीति से होता है ? इसप्रकार निमित्त पूछता है - कहै निमित्त जो दुःख सहै, सो तुम हमहि लगाय। सुखी कौन तैं होत है, ताको देहु बताय ।।३४।। अर्थ :- निमित्त कहता है - जीव जो दुःख सहन करता है, उसका दोष तू हमारे ऊपर लगाता है, किन्तु यह भी तो बताओ कि जीव सुखी किससे होता है ? निमित्त के लक्ष्य से अशुभभाव करने से जीव दुःखी होता है, परन्तु शुभभाव करके पुण्य बाँधे तो भी जीव दु:खी होता है - ऐसा कहा है, तब फिर जीव सुखी किसप्रकार होता है ? यदि उपादान का लक्ष्य करके उसे पहचाने तो ही जीव सुखी हो । जब आत्मा सम्यग्दर्शन के द्वारा स्वभाव को पहचानकर अपने में गुण प्रकट करता है, तब अधूरी अवस्था में शुभराग आता है और जहाँ राग होता है, वहाँ पर निमित्त होता ही है; क्योंकि स्वभाव के लक्ष्य से राग नहीं होता। यदि आत्मस्वभाव की प्रतीति हो तो उस शुभराग को और शुभराग के निमित्त को (सच्चे देव, शास्त्र, गुरु इत्यादि को) व्यवहार से धर्म का कारण कहा जाये, परन्तु शुभराग, निमित्त अथवा व्यवहार आत्मा को वास्तव में लाभ करे अथवा मुक्ति का कारण हो - यह बात गलत है। राग, निमित्त और व्यवहार रहित आत्मा के शुद्ध स्वभाव की श्रद्धा-ज्ञान तथा रमणता ही मोक्ष का सच्चा कारण है। जिस भाव से सर्वार्थसिद्धि का भव मिलता है अथवा तीर्थंकर प्रकृति मूल में भूल का बंध होता है वह भाव स्वभाव के सुख को चूक कर होता है इसलिए दुःख ही है। जिस भाव से भव मिले और मुक्ति रुके वह भाव विकार हैदुःख है। जितने दुःख होते हैं वे सब भाव निमित्तोन्मुख होने से होते हैं। निमित्त तो परवस्तु है वह दुःख नहीं देता परन्तु स्वलक्ष्य को चूक कर परलक्ष्य से जीव दु:खी होता है । इस बात को उपादान ने दृढ़ता पूर्वक सिद्ध कर दिया है इसलिए अब निमित्त ने यह प्रश्न उठाया है कि मेरी ओर के तो सभी भावों से जीव दु:खी ही होता है तो यह बताइये कि सुखी किससे होता है। इसके उत्तर में उपादान कहता है - जो सुख को तू सुख कहै, सो सुख तो सुख नाहिं। __ ये सुख दुःख के मूल हैं, सुख अविनाशी माहिं ।।३५।। अर्थ :- उपादान कहता है कि तू जिस सुख को सुख कहता है वह सुख ही नहीं है, वह सुख तो दुःख का मूल है। आत्मा के अंतरंग में अविनाशी सुख है। पिछले दोहे में निमित्त के कहने का यह आशय था कि एक आत्मा स्व को भूलकर पर की ओर झुकाव करता है तो वह दुःखी होता है तब सुखी किसे लेकर होता है ? अर्थात् जीव पर के निमित्त के लक्ष्य से शुभभाव करके पुण्य बांधकर उसके फल में सुखी होता है इसलिए जीव को सुखी होने में भी निमित्त की सहायता आवश्यक है। इसके उत्तर में उपादान उसकी मूल भूल' को बतलाता है कि हे भाई ! तू जिस पुण्य के फल को सुख कहता है वह सुख नहीं है किन्तु वह तो दु:ख का ही मूल है। पुण्य को और पुण्य के फल को अपना स्वरूप मानकर जीव मिथ्यात्वरूप महापाप की पुष्टि करे अनन्त संसार में दुःखी होता है इसलिए वहाँ पर पुण्य को दु:ख का ही मूल कहा है। पंचेन्द्रिय के विषयों की ओर उन्मुख होना तो दुःख ही है किन्तु पंच महाव्रतों का भाव भी आस्रव है दु:ख का मूल है।

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