________________
(४१)
मूल में भूल
(४०) यदि पर निमित्त के बिना मात्र आत्मा से ही विकार होता हो तो वह आत्मा का स्वभाव ही हो जायेगा और तब सिद्ध भगवान के भी विकार होना चाहिए। परन्तु विकारी भाव अन्य निमित्त के बिना होता नहीं होता; क्योंकि वह आत्मा का स्वभाव नहीं है। यदि बिना निमित्त के होने लगे तो विकार स्वभाव हो जाये किन्त विकार में निमित्त तो होता ही है: इसलिए निमित्त का जोर हुआ या नहीं।
विपरीतभाव अकेले स्वभाव में से आया या उसमें कोई निमित्त था ? क्या अकेली चूड़ी बज सकती है? अकेली चूड़ी नहीं बज सकती; किन्तु साथ में दूसरी चूड़ी के होने पर ही बज सकती है। यदि सामने चन्द्रमा न हो तो आँख में अंगुली लगाने से दो चन्द्रमा न दिखाई दें, क्योंकि सामने दूसरी चीज है, इसीलिए विकार होता है। इसीप्रकार आत्मा के विकार में दूसरी वस्तु की आवश्यकता होती है। उपादान और निमित्त दोनों के एकत्रित होने पर विकार होता है। आत्मा जब विकार करता है, तब वह पर के लक्ष्य से करता है या आत्मा के लक्ष्य से! मात्र आत्मा के लक्ष्य से विकार होने की योग्यता ही नहीं है, इसलिए विकार होने में मैं (निमित्त) भी कुछ करता हूँ।
ध्यान रखिये ये तो सब निमित्त के तर्क हैं। ऊपर से बलवान लगता तर्क भीतर से बिलकुल ढीला है, उसकी तो नींव कमजोर है। उपादान के सामने यह एक भी तर्क नहीं टिक सकता।
उपादान का उत्तर - उपादान कहे रे निमित्त, हम पै कही न जाय ।
ऐसे ही जिन केवली, देखे त्रिभुवन राय ।।२०।। अर्थ :- उपादान कहता है कि हे निमित्त ! मुझसे नहीं कहा जा सकता। जिनेन्द्र केवली भगवान त्रिभुवनराय ने ऐसा ही देखा है।
नोट - यहाँ पर उपादान के कहने का आशय यह है कि जब जीव
मूल में भूल विकार करता है, तब उसका लक्ष्य दूसरी वस्तु पर होता है, उस दूसरी वस्तु को निमित्त कहा जाता है; किन्तु जिनेन्द्र भगवान देखते हैं कि निमित्त के असर के बिना ही उपादान का उपयोग अपने ही कारण से विपरीत हुआ है; इसलिए तू जैसा कहता है, वैसा मुझसे नहीं कहा जा सकता।
अरे निमित्त ! आत्मा अपने विपरीत भाव से जब राग-द्वेष करता है, तब दूसरी वस्तु जो उपस्थित है, उसका इन्कार कैसे किया जा सकता है ? जीव विकार करता है, तब दूसरी वस्तु निमित्तरूप में उपस्थित होती है - यह ठीक है, किन्तु उस निमित्त को लेकर आत्मा विकार करता है - यह बात ठीक नहीं है। भले ही विकार आत्मा के स्वभाव में से नहीं आता, किन्तु विकार की उत्पत्ति तो आत्मा की ही अवस्था में होती है, कहीं निमित्त की अवस्था में से नहीं होती। दो चूड़ियाँ एकत्रित होकर बजती हैं, किन्तु वे एक-दूसरे के कारण नहीं बजीं; लेकिन प्रत्येक चूड़ी अपनी ही शक्ति से बजती है। दो लकड़ियाँ एकत्रित होती हैं तो वे चूड़ियों की तरह नहीं बजती क्योंकि उनमें उस तरह की उपादान शक्ति नहीं है। कभी दो चूड़ियाँ टक्कर लगने से टूट भी जाती हैं, तब वे वैसी क्यों नहीं बजती ? उनमें वैसी आवाज होने की उपादान शक्ति नहीं है, किन्तु टूटनेरूप योग्यता है; इसलिए वैसा होता है। दूसरे चन्द्रमा है, इसलिए आँख को अंगुली से दबाने पर दो चन्द्रमा दिखाई देते हैं - यह बात भी ठीक नहीं है। यदि चन्द्रमा के कारण ऐसा हो तो जो चन्द्रमा को देखते हैं, उन सबको दो चन्द्रमा दिखाई देने चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता; क्योंकि इसमें चन्द्रमा का कारण नहीं है। एक देखनेवाले को चन्द्रमा एक ही स्पष्ट दिखाई देता है और दूसरे देखनेवाले को दो चन्द्रमा दिखाई देते हैं। यहाँ देखनेवाले की दष्टि में कछ अन्तर है। जो देखनेवाला अपनी आँख में अंगुली गड़ाकर देखता है, उसे दो चन्द्रमा दिखाई देते हैं, दूसरे को नहीं दिखाई देते । उससे