Book Title: Mool me Bhool
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 16
________________ मूल मेंभूल काल और तीन लोक में हानि-लाभ करने के लिए समर्थ नहीं है। यदि अपने भाव में स्वयं उलटा रहे तो परिभ्रमण करता है और यदि सीधा हो तो मुक्त हो जाता है। प्रश्न - पैसा, शरीर इत्यादि जो हमारे हैं, वे तो हमारा लाभ करते हैं या नहीं? उत्तर - मूल सिद्धान्त में ही अन्तर है, पैसा इत्यादि तुम्हारे हैं ही नहीं। पैसा और शरीर तो जड़ हैं, अचेतन हैं, पर हैं। आत्मा चैतन्य ज्ञानस्वरूप है। जड़ और चेतन दोनों वस्तुएँ त्रिकाल भिन्न ही हैं, कोई एक-दूसरे की हैं ही नहीं; पैसा इत्यादि आत्मा से भिन्न ही हैं, वे आत्मा के सहायक नहीं हो सकते, किन्तु सच्चा ज्ञान आत्मा का अपना होने से आत्मा की सहायता करता है। पैसा, शरीर इत्यादि कोई भी वस्तु आत्मा के धर्म का साधन तो है ही नहीं, साथ ही उससे आत्मा के पुण्य-पाप नहीं होते। 'पैसा मेरा हैं' - ऐसा जो ममत्वभाव है, सो अज्ञान है, पाप है और यदि उस ममत्व को कम करे तो उस भाव से पुण्य होता है। पैसे के कारण से पाप या पुण्य नहीं है। पैसा मेरा है और मैं उसे रक्खू - ऐसा जो ममत्वभाव है, सो महापाप है। वास्तव में यदि ममत्व को कम करे तो दान इत्यादि शुभ कार्यों में ही लक्ष्मी को व्यय करने का भाव हुए बिना न रहे। यहाँ पर तो निमित्त-उपादान के स्वरूप को समझने का अधिकार चल रहा है। निमित्त की ओर से तर्क करनेवाला जीव शास्त्रों का ज्ञाता है। शास्त्रों की कुछ बातें उसने जानी हैं। इसलिए उन बातों को उपस्थित करके वह तर्क करता है। जिसने हिसाब लिखा हो, उसे बीच में कुछ पूछना होता है और वह प्रश्न कर सकता है, किन्तु जिसने अपनी स्लेट कोरी रखी हो और कुछ भी न लिखा हो तो वह क्या प्रश्न करेगा? इसीप्रकार जिसने कुछ शास्त्राभ्यास किया हो अथवा शास्त्र-श्रवण करके कुछ बातों को समझा हो तो वह तर्क मूल में भूल उपस्थित करके प्रश्न कर सकता है, किन्तु जिसने कभी शास्त्र को खोला ही न हो और क्या चर्चा चल रही है - इसकी जिसे खबर ही न हो, वह क्या प्रश्न खड़ा कर सकेगा? यहाँ पर शिष्य शास्त्र पढ़कर प्रश्न करता है कि हे उपादान ! तुम कहते हो कि आत्मा का धर्म अपने उपादान से ही होता है, निमित्त कुछ नहीं करता; किन्तु भव्यजीवों को जो क्षायिक सम्यक्त्व होता है, वह तो केवलीश्रुतकेवली के सान्निध्य में ही होता है - यह शास्त्रों में कहा है, तब वहाँ निमित्त का जोर आया या नहीं ? निमित्त इसप्रकार का तर्क उपस्थित करता है - कै केवलि कै साधु के, निकट भव्य जो होय । सो क्षायक सम्यक् लहै, यह निमित्त बल जोय ।।१०।। अर्थ :-निमित्त कहता है कि यदि केवली भगवान अथवा श्रुतकेवली मुनि के पास भव्यजीव हो तो ही क्षायिक सम्यक्त्व प्रकट होता है - यह निमित्त का बल देखो ! (यहाँ पर तर्क उपस्थित करते हुए निमित्त की भाषा लूली मालूम होती है, “आसन्न भव्यजीव कहते ही उपर्यक्त तर्क से शब्दों में यह बात स्पष्ट हो जाती है कि योग्यता उस जीव की अपनी ही है; इसलिए क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है - यह बात तर्क के शब्दों में आ जाती है।) क्षायिक सम्यक्त्व आत्मा की वह सम्यक् प्रतीति है कि जो केवलज्ञान को लेकर ही रहती है अर्थात् वह ऐसी आत्मप्रतीति है जो कभी पीछे नहीं रहती। श्रेणिक राजा पहले नरक से निकलकर भावी चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर होंगे, उन्हें ऐसा क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि को आत्मा की अति दृढ़ श्रद्धा होती है कि तीन लोक बदल जाए और इन्द्र उसे डिगाने के लिए उतर आये तो भी उसकी श्रद्धा नहीं बदलती। उसे अप्रतिहत श्रद्धा होती है, वह चौदह ब्रह्माण्ड से हिलाया नहीं हिलता और त्रिलोक में उथलपुथल हो जाए तो मन में भय-संदेह नहीं लाता - ऐसा निश्चल सम्यक्त्व

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