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"भले भलाई बुरे बुराई कर देखो रे भाई ! चिट्ठी दी पण्डित को, पर नाईने नाक कटाई !"
कर्मों के कारण जीव कितने बन्धनों में रहता है ? शरीर का बन्धन, परिवार का बन्धन, समाज का बन्धन, देश का बन्धन और विश्व का बन्धन- सर्वत्र बन्धन ही बन्धन हैं; सारा जीवन पराधीन है ! यहाँ तक की मौत भी अपने हाथ की बात नहीं है :
नागता आजीवनं या सा तु सम्प्रत्यागता । जीविते यद् दुस्सहत्वं तत्त मृत्यावप्यभूत ॥4
बम्बई की बात है। वहाँ मंच पर एक नाटक दिखाया जा रहा था। उसमें नायक (हीरो) निर्धनता से खिन्न होकर 'मर' जाता है। एक प्रेक्षक ने सोचा कि यदि मैं नायक की भूमिका में काम करता हुआ सचमुच मर जाऊं तो यह दृश्य बहुत प्रभावक हो जायगा। नाटक कम्पनी की ओरसे इस पर अधिक पुरस्कार मिलेगा और गरीबी से तंग मेरा परिवार भी उस पुरस्कार राशि से सुखी हो जायगा। अपने विचार को मूर्तरूप देने के लिये वह नाटक के संचालक से मिला। उसका प्रस्ताव सुनकर संचालक ने उत्तर दिया : “हम आपका प्रस्ताव स्वीकृत नहीं कर सकते, क्योंकि. उस प्रभावक दृश्य को देखकर प्रेक्षकों ने कहीं वन्समोर (एक बार और) कह दिया तो हमें दुबारा ऐसा अभिनेता कहाँ मिलेगा ?"
उसने समझ लिया कि मरना भी अपने बसकी बात नहीं है। मृत्यु आयुष्य कर्मकी समाप्ति पर ही अवलम्बित है। * सम्पादक द्वारा विरचित यह संस्कृत पद्यानुवाद उर्दू के जिस शेर का है, वहमौत पाने तक न आये, अब जो पाये हो तो हाय ! जिन्दगी मुश्किल ही थी, मरना भी मुश्किल हो गया ॥
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