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"समझ गया" कहकर घुड़सवार स्वयं घोड़े से नीचे उतरा और उन मज़दूरों की मदद की। फिर अफसर को सलाम करते हुए उसने कहा : "यदि फिर कभी इन मज़दूरों को मदद की आवश्यकता हो तो मुझे बुलवा लीजियेगा । मेरा नाम और पता है— जार्ज वाशिंगटन, राष्ट्रपति, अमेरिका !"
यह सुनते ही अफसर के पैरों तले से की ज़मीन खिसकने लगी । तत्काल दौड़कर उसने जार्ज के पाँव पकड़ लिये । जार्ज ने इस शर्त पर उसे क्षमा प्रदान की कि भविष्य में वह कभी इस प्रकार मनुष्यता का अनादर नहीं करेगा ।
मानवजीवन परोपकार से ही सफल होता है । उसे केवल पशुपक्षियों के समान भोगों में बिता देने वाले कैसे मूर्ख हैं ? सो इस श्लोक में देखिये :
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स्वर्णस्थाले क्षिपति स रजः पादशौचं विधत्ते पीयूषेण प्रवरकरिणं प्रवरकरिणं वाहयत्येन्धभारम् । चिन्तारत्नं विकिरति कराद् वायसोड्डापनार्थम् यो दुष्प्राप्यं गमयति मुधा मर्त्यजन्म प्रमत्तः ॥ [ जो प्रमादी ममुष्य अपने दुर्लभ जीवन को व्यर्थ गँवा रहा है, वह सोने की थाली में धूल डाल रहा है- अमृत से पैर धो रहा है, और श्रेष्ठ हाथी से ईंधन का भार उठवा रहा है और चिन्तामणि रत्न को कौए उड़ाने के लिए हाथ से फेंक रहा है ]
किसी वज़ीर की सेवा से प्रसन्न होकर एक बार बादशाह ने एक मूल्यवान् छाल भेंट की उसे ।
शाल ओढ कर वज़ीर अपने घर जा रहा था। ठंड के दिन थे । वज़ीर को जुकाम हो रहा था । उसने शाल से ही अपनी नाक पोंछ ली ।
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