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२४७ प्यास, अपमान आदि घोर कष्ट सहे । शान्ति से कष्ट सहना ही तप है । तप से कर्मनिर्जरा होती है । आत्मा शुद्ध होती है ।
टेलिग्राम से दुःखदायक समाचार मिलने पर क्या आप पोस्टमैन को पीटते हैं ? नहीं पीटते । इसी प्रकार समझना चाहिये कि दुःख देने वाला व्यक्ति भी कर्मराज का भेजा हुआ पोस्टमैन है। उसके निमित्त से हमें दुःख भले ही मिला हो, परन्तु दु:ख का वास्तविक कारण हमारे ही पूर्वोपार्जित कर्मों का उदय है। दु:ख देकर जो व्यक्ति हमें कर्ममुक्त कर जाता है, वह मित्र है, शत्रु नही।
दीपक मित्र है, जो आपके रात्रिकालीन पापों को देख कर प्रातःकाल आत्महत्या कर लेता है (बुझ जाता है)ऐसा किसी कवि ने कहा है।
__ यदि कोई कलेक्टर आपका मित्र हो तो जिले पर, मुख्यमन्त्री मित्र हो तो प्रदेश पर और प्रधानमन्त्री मित्र हो तो पूरे देश पर आप अपना ही राज्य समझते हैं। उसी प्रकार यदि परमात्मा से आपकी मित्रता हो जाय तो पूरे विश्व पर आप अपना राज्य समझ सकते हैं।
विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर प्रभु से दुःख हटाने की प्रार्थना नहीं करते थे। वे केवल दु:ख सहने की शक्ति ही परमात्मा से माँगते थे।।
प्रभु महावीर ने कहा है : पुरिसा! तुममेव तुमं मित्तम् किं बहिया मित्तमिच्छसि ?
_ -आचारांग ३/३ [हे पुरुष ! तुम स्वयं ही अपने मित्र हो; बाहर के (दूसरे) मित्र क्यों चाहते हो ?]
दूसरे मित्र चाहने का अर्थ है-दूसरों से सहायता की आशा करना यह परावलम्बन है-दासता है- परतन्त्रता है । स्वतन्त्र व्यक्ति स्वयं अपना सहायक होता है; इसलिए दूसरों से
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