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१५. मित्रता
पिछले चौदह प्रवचनों में जिन विषयों का विस्तृत विवेचन हुआ है, वे सब मित्रता में सहायक हैं, मित्रता के समर्थक हैं, मित्रता के लिए अनिवार्य हैं।
आखिर यह मित्रता क्या चीज़ है ? प्रवचन” खला की इस अन्तिम कड़ी में हम यही बात समझने की कोशिश करेंगे।
प्रेम के तीन प्रकार होते हैं - श्रद्धा, मित्रता और वात्सल्य, तीर्थकर, गुरुदेव, माता-पिता, बड़े कुटुम्बी आदि अपने से महान्
यक्तियों के प्रति जो मन में प्रेम होता है, उसे श्रद्धा कहते है। अपने समान व्यक्तियों प्रति जो प्रेम होता है, उसे मित्रता कहते है और अपने से छोटों (पुत्र, शिष्य आदि के प्रति जो प्रेम होता है, उसे वात्सल्य कहते हैं।
हमें केवल मित्रता पर ही यहाँ विचार विमर्श करना है। वाचक उमास्वाति ने लिखा है :
मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्त्वगृणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेष ॥
-तत्त्वार्यसूत्रम् ७/६ [प्राणिमात्र से मैत्री, गुणाधिकों से प्रमोद, पीडितों से करुणा
और अविनीत (जड़ शिष्यों) से माध्यस्थ्य वृत्ति रहनी चाहिये]
यह बात किसी ने :
सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदम् ॥ [प्राणिमात्रके प्रति मित्रता और अपने से अधिक गुणवानों के प्रति प्रमोद
इन शब्दों के द्वारा कही है।
प्राणिमात्र के साथ मित्रता की वृत्ति हो तभी व्यवहार अहिंसामय और सत्यमय रह सकता है। मित्रता का अर्थ
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