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११. चिन्ता
चिन्ता ऐसी आग है, जो मनमें लगती है और शरीर को जलाती है। चिता शरीर को एक ही बार जलाती है; परन्तु चिन्ता उसे बार-बार जलाती है। इसलिए चिता और चिन्ता –इन दोनों की तुलना की जाय तो चिन्ता अधिक भयंकर मालूम होगी।
सुप्रसिद्ध विचारकों ने चिन्तन किया है, चिन्ता नहीं की। चिन्तन से बड़े-बड़े ग्रन्थों की रचना की जाती है, चिन्ता से नहीं । चिन्ता तो उलटे सक्रिय मनुष्य को भी निष्क्रिय बना देती है । चाणक्य ने लिखा है
"चिन्ता जरा मनुष्याणाम् ॥" [चिन्ता मनुष्यों का बुढापा है अर्थात् चिन्ता करने वाला जवान शीघ्र बूढा हो जाता है]
चिन्ता ऐसी राक्षसी है, जो सब कुछ खा जाती हैनष्ट कर देती है :
चिन्तया नश्यते रूपम् चिन्तया नश्यते बलम् ।
चिन्तया नश्यते ज्ञानम् व्याधिर्भवति चिन्तया ॥ [चिन्तासे रूप, शक्ति और ज्ञान नष्ट हो जाता है और रोग पैदा हो जाता है]
चिन्ता रोग की माता ही नहीं, स्वयं भी बीमारी है :
को वा ज्वर: ? प्राणभृतां हि चिन्ता ॥ [बुखार कौनसा है ? प्राणियों के भीतर रहने वाली चिन्ता ही उनका बुखार है]
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