Book Title: Main Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 228
________________ २१८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता में आता, पत्नी बड़ी क्रुद्ध होती, न जाने क्या-क्या कहती। एक दिन पति आया, आते ही पत्नी गालियां बकने लगी । वह बोली- यह भी कोई समय होता है, इतना विलम्ब कर दिया, इतनी देरी से आये हो - क्या मैं निकम्मी हूं, सारा भोजन ठंडा हो गया। मुझे भी खाना है। इतना कहा, इतना कहा— बेचारा सुनता रहा । पत्नी ने थाली परोसी और पति की ओर सरका दी । खाना ठंडा था । पति ने थाली उठाई, पत्नी के सिर पर रख दी। वह बोलीअरे, क्या कर रहे हो ? बोला - खाना ठंडा है थोड़ा गर्म कर रहा हूं क्योंकि अभी तुम्हारा सिर गरमाया हुआ है । आदमी में कितनी उत्तेजना होती है, कितना आवेग होता है, कितनी गरमाहट होती है कि भोजन ही क्या, आसपास का सारा वातावरण गरमा जाता है | अब ऐसी स्थिति में एक ओर इतनी उत्तेजना, इतना आवेग, इतनी अशांति तथा दूसरी ओर हम शान्ति की चर्चा करें तो यह कैसे संभव हो सकती है। जब तक मनुष्य बदलेगा नहीं, तब तक यह शांति की चर्चा बहुत कठिन है । जो सत्ता पर बैठे हैं उनका अपना दृष्टिकोण है और जो लोग सत्ता पर नहीं हैं, पूरा समाज है, मनुष्य जाति है, उसका अपना दृष्टिकोण है और अपना तर्क है । दोनों का मेल नहीं हो रहा है । जनता के दृष्टिकोण को सत्ता के आसन पर बैठे लोग नहीं समझ रहे हैं, यह एक बड़ी समस्या है। दुनिया में सौ-पचास लोग ऐसे हैं जो सारी अशांति के लिए जिम्मेदार हैं । इस स्थिति में जनता का कर्तव्य होता है कि अपने स्वर को इतना बुलन्द करे, अपनी आवाज को इतना शक्तिशाली बनाए कि सत्ता पर बैठे लोगों को वह स्वर सुनना पड़े। उनके कान में जूं रेंगे और उन्हें ध्यान देना पडे यह बहुत जरूरी है । राज्य का विस्तार, अपने विचारों का विस्तार और अधिकार का विस्तार, यह बहुत पुरानी मनोवृत्ति है। इसमें कोई संदेह नहीं । साम्राज्यवादी मनोवृत्ति कोई नयी बात नहीं है । एक जमाने में बुरा भी नहीं माना जाता था, किन्तु आज के प्रबुद्ध चिन्तन में साम्राज्वादी मनोवृत्ति हेय मान ली गई, वह उपादेय नहीं रही । पुराने जमाने में कोई सम्राट् अपने साम्राज्य का विस्तार करता, सैकड़ोंसैकड़ों राजाओं पर विजय पा लेता, उसकी गुणगाथा गायी जाती, 'कितना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274