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२३० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता किसी को खाता है, उस समय बचाए या नहीं बचाएं, हटाएं या न हटाएं, यह निर्णय व्यवहार की भूमिका पर जो व्यक्ति, जिस समय, जैसा उचित समझे वैसा करे । हमें इसमें क्या आपत्ति है ? यह अपनी-अपनी स्थिति, परिस्थिति और वातावरण का प्रश्न है | धर्म का और चैतन्य-जागरण का प्रश्न इससे सर्वथा भिन्न है ।
काण्ट ने लिखा है-—दया के अभिनिवेश में कोई आचारण करना धर्म नहीं है । यह एक नैतिक दुर्बलता या मानसिक बीमारी है । यह भी एक प्रकार का अभिनिवेश है, आवेश है । जैसे क्रोध का आवेश होता है, वैसे ही करुणा का भी आवेश होता है । करुणा के आवेश में किया जाने वाला आचरण धर्म नहीं हो सकता । ईसाइयों का एक सम्प्रदाय है—टोई सम्प्रदाय । उस संप्रदाय के सदस्य करुणा के आवेश को पास में भी नहीं फटकने देते । वे कहते हैं, मानते हैं कि आवेश में, फिर चाहें व करुणा का हो या क्रोध का, कोई भी काम होगा वह गलत होगा । वह धर्म नहीं हो सकता ।
आचार्य भिक्षु ने एक कसौटी दी । चाहे गाय घास खा रही हो, चाहे कसाई बकरों को मार रहा हो, चाहे कोई पशु या सिंह अन्य पशु को मार रहा हो, कुछ भी हो रहा हो । वहां कसौटी यह है कि सामने वाले ने हिंसा छोड़ी, उसका चैतन्य जागा, हृदय बदला तो वह धर्म है और अध्यात्म है | यदि उसका चैतन्य नहीं जागा, हृदय नहीं बदला तो उसे धर्म की सीमा में कभी प्रविष्ट नहीं किया जा सकता । चैतन्य-जागरण कसौटी है । जहां चैतन्य का जागरण है वहां धर्म है जहां चैतन्य का जागरण नहीं, वहां धर्म नहीं ।
एक आदमी किसी को मार रहा है । चाहे आदमी को ही मार रहा हो । दूसरा आया । उसने जोर-जबरदस्ती उसे छुड़ा दिया । पूछा जाए कि छुड़ाने वाले को क्या हुआ ! आचार्य भिक्षु का उत्तर वही होगा--तुमने बल-प्रयोग से छुड़ाया है तो वह लोक की भूमिका का कर्तव्य है। अगर उसका अध्यात्म जागा, हृदय बदला तो वह अध्यात्म और धर्म होगा ।
आचार्य भिक्षु ने चैतन्य जागरण और अध्यात्म की भूमिका को और आगे बढ़ाया । उन्होंने एक सूत्र प्रस्तुत किया । उस सूत्र का उल्लेख अध्यात्म जगत् में भी कम मिलता है । उन्होंने कहा- 'पुण्य की इच्छा करना भी पाप है | सारे लोग पुण्य के लिए काम कर रहे हैं। सभी जगह एक ही स्वर सुनाई
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