Book Title: Main Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 242
________________ २३२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता जाता है | जब चैतन्य सोया हुआ होता है, तब चलता है पक्षपात का दौर और जब पक्षपात होता है तब हिंसा, झूठ, चोरी, काम-वासनाएं ये सारी प्रतिक्रियाएं पैदा होती हैं। ___हिंसा कोई मूल बात नहीं है । असत्य और चोरी कोई मूल बात नहीं है। अब्रह्मचर्य कोई मूल बात नहीं है। मूल बात है परिग्रह । ये सब उसकी प्रतिक्रियाएं हैं। लोगों ने कहा- 'अहिंसा परमो धर्मः ।' मैं समझता हूं कि जैन शासन का यह सही घोष नहीं है । घोष होना चाहिए—'अपरिग्रहः परमो धर्मः ।' अधर्म का मूल है परिग्रह,न कि हिंसा | परिग्रह के लिए हिंसा होती है, न कि हिंसा के लिए परिग्रह । मूल जड़ है परिग्रह । भगवान् महावीर ने सूत्रकृतांग सूत्र में इस पर बहुत विस्तार से प्रकाश डाला है । तीन प्रकार का परिग्रह होता है--शरीर-परिग्रह कर्म परिग्रह और द्रव्य-परिग्रह । हमने तो परिग्रह मान लिया धन को, कपड़ों को, मकान को | ये मूल परिग्रह नहीं हैं । परिग्रह का मूल कारण है-शरीर । उसका दूसरा कारण है कर्म, संस्कार | आदमी ने संस्कारों का परिग्रह कर रखा है। उसके पास बड़ा परिग्रह है शरीर । शरीर के लिए वह वस्तुओं का परिग्रह करता है और फिर उनके लिए हिंसा आदि का जाल बिछाता है । तेरापंथ ने एक अध्यात्म के प्रयोग का सूत्रपात किया । उसमें शरीर के ममत्व का त्याग मुख्य है । आचार्य भिक्षु ने कहा—विनीत साधु वह होता है जो गुरू के आदेश देने पर धूप में खड़े-खड़े सूख जाने में भी प्रसन्नता का अनुभव करता है । अपने शरीर की चिन्ता नहीं करता । उसके ममत्व को त्याग देता है। महासती गुलाबां छोटी थी । वह इधर-उधर घूमती रहती । एक बार जयाचार्य ने उसे बार-बार चक्कर लगाते देख लिया । जयाचार्य ने कहा'गुलाबां ! जा, उस आले में बैठ जा ।' वह तत्काल गई, वहां बैठ गई । भोजन का समय हो गया । सब साधु-साध्वियां आहार करने बैठ गए । साध्वियों का ध्यान गया । उन्होंने देखा कि वह छोटी साध्वी गुलाबां नहीं है । खोजा गया | खोजते-खोजते देखा कि वह दुबकी हुई-सी एक आले में स्थिर बैठी है । साध्वियों ने कहा- 'चलो, आहार करो ।' उसने कहा-नहीं, आचार्यश्री ने मुझे यहां बैठने के लिए कहा है । उनकी आज्ञा के बिना मैं नहीं चलूंगी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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