Book Title: Main Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 270
________________ २६० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता घाट पानी पीते हैं । नित्य वैरी पशु-पक्षी भी अपना वैर-भाव भूल जाते हैं। साधक के मन में अहिंसा के प्रति या तो आस्था नहीं है या उसके प्रति निष्ठा का भाव नहीं जगा है, इसीलिए वह छोटी-सी बात पर मैत्री-भाव को भुलाकर विरोध पैदा कर देता है, भेद पैदा कर देता है। आज के इस वैज्ञानिक और तार्किक युग में साधना करने वाले व्यक्ति के सामने एक बहुत बड़ा प्रश्न उभरकर आ रहा है कि अहिंसक व्यक्तियों के होते हुए भी वैर-विरोध क्यों बढ़ रहा है ? पुराने जमाने में शायद यह प्रश्न इतना उभरकर सामने नहीं आया था । आज प्रत्येक साधक या धार्मिक व्यक्ति के सामने यह प्रश्न चिन्ह है । छोटी-छोटी बातें, छोटे छोटे विघ्न सारी प्रसन्नता को गायब कर, मैत्री-भावना को लुप्त कर वैर-भावना को पैदा कर रहे हैं। हमें वैज्ञानिकों से सीखना होगा कि केन्द्रों को शान्त कर स्थिति को कैसे बदला जा सकता है ? हमारे पास भी केन्द्रों को शांत करने के उपाय हैं, साधना के सूत्र हैं। जो काम वैज्ञानिक इलेक्ट्रॉड के द्वारा, विद्युत प्रकंपनों के द्वारा करते हैं, वही काम उस केन्द्र पर ध्यान करने से हो जाता है । ऐसा होता है, और हो सकता है । प्रसन्नता की दूसरी बाधा है आकांक्षा यानी समता को आत्मसात् न कर पाना । प्रसन्नता की तीसरी बाधा है भय और चौथी बाधा है अब्रह्मचर्य । आयुर्वेद का एक प्रसिद्ध श्लोक है 'चित्तायतं धातुबद्धं शरीरं, चित्ते नष्टे धातवो यान्ति नाशम् । तस्माच्चित्तं सर्वथा रक्षणीयं, स्वस्थे चित्ते बुद्धयः प्रस्फुरन्ति ।।' मनुष्य का शरीर चित्त के और धातुओं के अधीन है । जब चित्त नष्ट हो जाता है तब धातुएं क्षीण होने लगती हैं । जब यह स्थिति घटित होती है तब सारी प्रसन्नता नष्ट हो जाती है । वृत्तियां लड़खड़ा जाती हैं । आदमी अर्ध-विक्षिप्त-सा हो जाता है । इसका मूल कारण है—वीर्यनाश अर्थात् धातु की क्षीणता | चिड़चिड़ापन बढ़ता है । भय, कंपन आदि की वृद्धि होती है । निराशा और बुरी बातें, बुरी कल्पनाएं आने लगती हैं । दृष्टिकोण बदल जाता हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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