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२२८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता सोची जा सकती है, पर आचार्य बनूं या अग्रणी बनूं, यह सोचना इष्ट नहीं है । उन्होंने नियम बनाया--कोई भी साधु या साध्वी पद के लिए उम्मीदवार नहीं बनेगा।
विचार का भी अहंकार और ममकार होता है । किसी साधु ने मान लिया कि मैं बहुत बड़ा चिन्तक हूं, विद्वान् हूं, सोच-समझ सकता हूं उसने अपना एक विचार बना लिया । जब उसमें आग्रह होगा कि मेरा विचार पूरी तरह से मान्य हो | पर वैसा होता नहीं । वही विचार मान्य हो सकता है जो संघ का विचार बनता हो । किसी व्यक्ति-विशेष का विचार सर्वमान्य बने, यह आवश्यक नहीं है । व्यक्ति में इससे आग्रह पनपता है | आग्रह से पक्ष प्रबल करने की बात आती है और उसका अन्त होता है संघ से पृथक् हो जाना । वह कहता है-मेरा विचार मान्य नहीं हुआ, इसलिए मैं संघ से अलग हो गया ।
आचार्य भिक्षु ने इस दिशा में अध्यात्म का एक प्रयोग किया । बहुत सुन्दर प्रयोग किया। पूरे वैचारिक और दर्शन-विकास के इतिहास में वैचारिक ममत्व के विसर्जन का जो सूत्र आचार्य भिक्षु ने दिया, वैसा संभवतः अन्य आचार्यों ने नहीं दिया । उन्होंने इसकी एक पूरी आचार-संहिता प्रस्तुत की। उन्होंने लिखा--'तुमने जो विचार बनाया है, उसकी पृष्ठभूमि खोजो । तुम तत्त्वद्रष्टाओं के अनुभव का अनुसरण करो । तुम सोचो, मेरा जो विचार बना है, उसके पीछे किस व्यक्ति का अनुभव काम कर रहा है । तुम्हारे उस विचार का कोई आधार प्राप्त होता है या नहीं, इसे देखो । जो लोग अनुभव के क्षेत्र में उतरे हैं, उन्होंने अनुभव की वाणी में जो कहा है, उसका आधार मिल जाए तो बात सीधी बन जाती है | जहां समस्या उलझती है, वहां हम आगमवाणी को उद्धृत करते हैं । आगम की वाणी अनुभव की वाणी है । भगवान् महावीर ने दीर्घकालीन साधना के बाद जो अनुभव प्राप्त किया और जो वाणी प्रस्तुत की वह अनुभव की वाणी है, प्रजा की वाणी है | सबको अनुभव की वाणी का आधार खोजना चाहिए । यह उस आचार-संहिता की पहली कड़ी है। ___आचार्य भिक्षु ने दूसरी बात कही—तुम अपना विचार आचार्य तथा बहुश्रुत साधुओं के समक्ष रखो । वे जो समाधान दें, उसे स्वीकार करो । यह
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