Book Title: Main Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 235
________________ चैतन्य-जागरण का अभियान | २२५ हुए हैं । आज के वैचारिक क्षेत्र में इस तटस्थता को बहुत महत्त्व दिया गया है । इसका बहुत मूल्यांकन किया गया है । तटस्थ राष्ट्र दोनों राष्ट्रों के बीच में एक सीमा-रेखा का काम कर रहे हैं। समता का प्रयोग अपरिग्रह के क्षेत्र में और अर्थ के क्षेत्र में किया गया । अर्थ के क्षेत्र में साम्यवाद, समाजवाद, रूप चाहे जैसे बना हो, किन्तु उसकी पृष्ठभूमि में समता का सिद्धान्त बोल रहा है | इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता | वर्तमान की सारी समस्याओं के समाधान में दो तत्त्व उजागर हुए हैं—एक तटस्थता और दूसरा समानता । तेरापंथ तटस्थता का प्रयोग है, समता का प्रयोग है । अहंकार और ममकार तटस्थता को भंग करने वाले तत्त्व हैं । अध्यात्म की भाषा में हम ममकार का अर्थ समझें । जो अनात्मीय भाव हैं, जो अपने नहीं हैं, स्व नहीं हैं, जो आत्मा के नहीं हैं, वे सब अनात्मीय हैं, जैसे शरीर । वह शरीर कर्मजनित है। यह स्थूल शरीर बना है कर्मशरीर से, जो सूक्ष्म शरीर है। उसने इस स्थूल शरीर का निर्माण अपने सहभागी शरीर के रूप में किया है । वह आत्मा का नहीं है, चैतन्य का नहीं है। शरीर भिन्न है। आत्मा भिन्न है । जितना भी पुद्गल है, वह अनात्मीय है । अनात्मीय में आत्मीय का अभिनिवेश होना ममकार है । यह मेरा शरीर, यह मेरा धन-यह अभिनिवेश ममकार दूसरा तत्त्व है अहंकार | कर्म के कारण मनुष्य की नाना प्रकार की अवस्थाएं बनती हैं । उन कर्मजनित अवस्थाओं में 'यह मैं हूं'—इस प्रकार का अभिनिवेश करना ‘अहंकार' है । जैसे—मैं भाग्यवान् हूं, मैं रूपवान् हूं, मैं बलवान् हूं—ये सारी अवस्थाएं कर्म और सूक्ष्म संस्कारों के कारण निर्मित होती हैं | उन अवस्थाओं में 'अहं' का अभिनिवेश करना अहंकार है । अहंकार और ममकार ये दोनों मिलकर पक्षपात का निर्माण करते हैं | अहंकार जुड़ा पक्ष बन गया । ममकार जुड़ा पक्ष बन गया । आचार्य भिक्षु बड़े तत्त्वज्ञानी और प्रबुद्ध तत्त्वदर्शी थे । उन्होंने देखा, धर्मसंघ चल रहे हैं अध्यात्म के आधार पर, फिर उनमें इतना वैमनसय क्यों ? एक संघ के साधु-साध्वियों में भी इतना अलगाव क्यों ! परस्पर में कटुता का भाव क्यों ? सौहार्द क्यों नहीं ! उन्होंने इन सारी समस्याओं पर विचार किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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