Book Title: Mahavira ka Sarvodaya Tirth
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 15
________________ १२ महावीरका सर्वोदयतीर्थ स्याद्वादमत ( शासन ) को पूर्णतः निर्दोष और अद्वितीय निश्चित किया गया है और उससे बाह्य जो सर्वथा एकान्तके श्राग्रहको लिये हुए मिथ्यामतोंका समूह है उस सबका संक्षेप में निराकरण किया गया है, यह बात सदबुद्धिशालियोंको भले प्रकार समझ लेनी चाहिये । इसके आगे, ग्रन्थके उत्तरार्ध में, वीरशासन वर्णित तत्त्वज्ञान के मर्मकी कुछ ऐसी गुह्य तथा सूक्ष्म बातोंको स्पष्ट करके बतलाया गया है जो ग्रन्थकार महोदय स्वामी समन्तभद्र से पूर्व के ग्रन्थों म प्रायः नहीं पाई जातीं, जिनमें 'एव' तथा 'स्यात्' शब्द के प्रयोगप्रयोगके रहस्य की बातें भी शामिल हैं और जिन सबसे महावीरके तत्त्वज्ञानको समझने तथा परखनेकी निर्मल दृष्टि अथवा कसौटी प्राप्त होती है। महावीरके इस अनेकान्तात्मक शासन ( प्रवचन ) को ही प्रन्थ में 'सर्वोदयतीर्थ' बतलाया है- संसारसमुद्र से पार उतरनेके लिये वह समीचीन घाट अथवा माग सूचित किया है जिसका आश्रय लेकर सभी भव्यजीव पार उतर जाते हैं और जो सबके उदय उत्कर्ष में अथवा आत्माकं पूर्ण विकास में परम सहायक है । इस विपयकी कारिका निम्न प्रकार है सर्वान्तवत्तद्गुण- मुख्य- कल्पं सर्वान्त-शून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ ६१ ॥ इसमें स्वामी समन्तभद्र वीर भगवानको स्तुति करते हुए कहते हैं— ( हे वीर भगवन् ! ) आपका यह तीर्थ - प्रवचनरूप शासन या परमागमवाक्य, जिसके द्वारा संसार - महासमुद्रको तिरा जाता है— सर्वान्तवान् है - सामान्य-विशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि - निषेध ( भाव -अभाव), एक-अनेक, आदि अशेष धर्मोको लिये हुए हैं; एकान्ततः किसी एक ही धर्मको अपना इष्ट किये हुए नहीं है

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