Book Title: Mahavira ka Sarvodaya Tirth
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 21
________________ १६ महावीरका सर्वोदयतीर्थ सिद्धान्त-बाधित ठहरता है, वह अपने स्वरूपको प्रतिष्ठित करनेमें स्वयं असमर्थ है और उसके आधार पर कोई लोकव्यवहार सुघटित नहीं हो सकता । दूसरे सत्-असत् तथा नित्य-क्षणिकादि सर्वथा एकान्त-वादोंकी भी एसी हा स्थिति है, वे भी अपने स्वरूपको प्रतिष्ठित करने में असमथ है और उनके द्वारा भी अपन स्वरूपका बाधा पहुँचाये बिना लाक-व्यवहारकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती। श्रीसिद्धसेनाचायने अपने सन्मतिसूत्रमें कपिलके सांख्यदर्शनको द्रव्यार्थिकनयका वक्तव्य, शुद्धोधनपुत्र बुद्धके बौद्धदर्शनको परिशुद्ध पर्यायाथिक नयका विकल्प और उलूक ( कणाद ) के वैशेषिकदशनको उक्त दोनों नयोंका वक्तव्य होनेपर भी पारस्परिक निरपेक्षताके कारण मिथ्यात्व' बतलाया है और उसके अनन्तर लिखा है: जे संतवाय-दोसे सक्कोलूया भणंति संखाणं । संखा य असव्वाए तेसिं सव्वे वि ते सच्चा ॥५०॥ ते उ भयणोवणीया सम्मदंसणमणुत्तरं होति । जं भवदुक्खविमोक्खं दो वि ण पूरेंति पाडिक्कं ॥५१॥ _ 'सांख्योंके सद्वादपक्षमें बौद्ध और वैशेषिक जन जो दोष देते हैं तथा बौद्धों और वैशेषिकोंके असद्वादपक्षमें सांख्यजन जो दोष देते हैं वे सब सत्य हैं-सर्वथा एकान्तवादमें वैसे दोप आते ही हैं । ये दोनों सद्वाद और असद्वाद दृष्टियाँ यदि एक दूसरेकी अपेक्षा रखते हुए संयोजित हो जॉय-समन्वयपूर्वक अनकान्तदृष्टि में परिणत हा जाये तो सर्वोत्तम सम्यगदर्शन बनता है; क्योंकि ये सत्-असत् रूप दोनों दृष्टियाँ अलग-अलग संसारके दुःखोंसे छुटकारा दिलानेमें समर्थ नहीं हैं-दोनोंके

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