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महावीरका सर्वोदयतीर्थ १०७ तृष्णाकी शान्ति अभीष्ट इन्द्रिय-विषयोंकी सम्पत्तिसे नहीं होती, प्रत्युत इसके वृद्धि होती है।
१०८ आध्यात्मिक तपकी वृद्धि के लिये ही बाह्य तप विधेय है।
१०६ यदि आध्यात्मिक तपकी वृद्धि ध्येय या लक्ष्य न हो तो बाह्य तपश्चरण एकान्ततः शरीर-पीडनके सिवा और कुछ नहीं।
११० सद्ध्यानके प्रकाशसे आध्यात्मिक अन्धकार दूर होता है
१११ अपने दोषके मूल कारणको अपने ही समाधितेजसे भस्म किया जाता है।
११२ समाधिकी सिद्धि के लिये बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहोंका त्याग आवश्यक है। .
११३ मोह-शत्रुको सदृष्टि, संवित्ति और उपेक्षारूप अस्त्रशस्त्रोंसे पराजित किया जाता है।
११४ वस्तु ही अवस्तु हो जाती है, प्रक्रियाके बदल जाने अथवा विपरीत हो जानेसे।
११५ कर्म कर्तारको छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता। ११६ जो कर्मका कर्ता है वही उसके फलका भोक्ता है।
११७ अनेकान्त-शासन ही अशेष-धोका आश्रय-भूत और सर्व-आपदाओंका प्रणाशक होने से 'सर्वोदयतीर्थ' है।
११८ जो शासन-वाक्य धर्मों में पारस्परिक अपेक्षाका प्रतिपादन नहीं करता वह सब धर्मोसे शून्य एवं विरोधका कारण होता है और कदापि 'सर्वोदयतीर्थ' नहीं हो सकता।
११६ आत्यन्तिक-स्वास्थ्य ही जीवोंका सच्चा स्वार्थ है, क्षणभंगुर भोग नहीं।
१२० विभावपरिणतिसे रहित अपने अनन्तज्ञानादिस्वरूपमें शाश्वती स्थिति ही 'श्रात्यन्तिकस्वास्थ्य' कहलाती है, जिसके लिये सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये ।