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३८ . महावीरका सर्वोदयतीर्थ बिना सत्यकी कोई स्थिति ही नहीं ।
७८ जो अनेकान्तको नहीं जानता वह सत्यको नहीं पहचानता, भले ही सत्यके कितने ही गीत गाया करे।
७६ अनेकान्त परमागमका बीज अथवा जैनागमका प्राण है। ८० जो सर्वथा एकान्त है वह परमार्थ-शून्य है। ८१ जो दृष्टि अनेकान्तात्मक है वह सम्यग्दृष्टि है। ८२ जो दृष्टि अनेकान्तसे रहित है वह मिथ्यादृष्टि है।
८३ जो कथन अनेकान्तदृष्टिसे रहित है वह सब मिथ्यावचन है।
८४ सिद्धि अनेकान्तसे होती है, न कि सर्वथा एकान्तसे ।
८५ सर्वथा एकान्त अपने स्वरूपकी प्रतिष्ठा करने में भी समर्थ नहीं होता। ___ ८६ जो सर्वथा एकान्तवादी है वे अपने वैरी आप हैं।
८७ जो अनेकान्त-अनुयायी हैं वे वस्तुतः अहजिनमतानुयायी हैं, भले ही वे 'अर्हन्त' या 'जिन' को न जानते हों। ___८८ मन-वचन-काय-सम्बन्धी जिस क्रियाकी प्रवृत्ति या निवृत्तिसे आत्म-विकास सधता है उसके लिये तदनुरूप जो भी पुरुषार्थ किया जाता है उसे 'कर्मयोग' कहते हैं।
८६ दया, दम, त्याग और समाधिमें तत्पर रहना आत्मविकासका मूल एवं मुख्य कर्मयोग है ।
६० समीचीन धर्म सदृष्टि, सद्बोध और सञ्चारित्ररूप है, वही रत्नत्रय-पोत और मोक्षका मार्ग है।
६१ सदृष्टिको लिये हुए जो ज्ञान है वह सद्बोध कहलाता है
१२ सद्बोध-पूर्वक जो आचरण है वही सचारित्र है अथवा झानयोगीके कर्मादानको निमित्तभूत जो क्रियाएँ उनका त्याग सम्यक्चारित्र है और उसका लक्ष्य राग-द्वपकी निवृत्ति है।
६३ अपने राग-द्वेष-काम-क्रोधादि-दोषोंको शान्त करनेसे ही