Book Title: Mahavira ka Sarvodaya Tirth
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 39
________________ महावीरका सर्वोदयतीर्थ विशेष, विद्या-अविद्या, गुण-दोष अथवा विधि-निषेधादिके रूपमें जो असंख्य अनन्त जोड़े हैं उनमेंसे किसी भी जोड़ेके एक साथीके बिना दूसरेका अस्तित्व नहीं बन सकता । ___५० एक धर्मीमें प्रतियोगी धर्म परस्पर अविनाभाव-सम्बन्धको लिये हुए रहते हैं, सर्वथा रूपसे किसी एककी कभी व्यवस्था नहीं बन सकती। __५१ विधि-निषेधादिरूप सप्त भंग सम्पूर्णतत्त्वार्थपर्यायोंमें घटित होते हैं और 'स्यात्' शब्द उनका नेतृत्व करता है। ५२ सारे ही नय-पक्ष सर्वथारूपमें अति दूषित हैं और स्यात्रूपमें पुष्टिको प्राप्त हैं। ५३ जो स्याद्वादी हैं वे ही सुवादी हैं, अन्य सब कुवादी हैं। ५४ जो किसी अपेक्षा अथवा नयविवक्षाको लेकर वस्तुतत्त्वका कथन करते हैं वे स्याद्वादी हैं, भले ही 'स्यात्' शब्दका प्रयोग साथमें न करते हों। ५५ कुशलाऽकुशल-कर्मादिक तथा बन्ध-मोक्षादिककी सारी व्यवस्था स्याद्वादियों अथवा अनेकान्तियोंके यहाँ ही बनती है। ५६ सारा वस्तुतत्त्व अनेकान्तात्मक है। ५७ जो अनेकान्तात्मक है वह अभेद-भेदात्मककी तरह तदतत्स्वभावको लिये होता है। ५८ तदतत्स्वभावमें एक धर्म दूसरे धर्मसे स्वतन्त्र न होकर उसकी अपेक्षाको लिये रहता है और मुख्य-गौणकी विवक्षासे उसकी व्यवस्था उसी प्रकार होती है जिस प्रकार कि मथानीकी रस्सीके दोनों सिरोंकी। ५६ विवक्षित मुख्य और अविवक्षित गौण होता है । ६० मुख्यके बिना गौण तथा गौणके बिना मुख्य नहीं बनता। जो गौण होता है वह अभावरूप निरात्मक नहीं होता। ६१ वही तत्त्व प्रमाण-सिद्ध है जो तदतत्स्वभावको लिए हुए

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