Book Title: Mahavira ka Sarvodaya Tirth
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 42
________________ सर्वोदयतीर्थके कुछ मूलसूत्र प्रात्मामें शान्तिकी व्यवस्था और प्रतिष्ठा होती है। ६४ ये राग-द्वेपादि-दोप, जो मनकी समताका निराकरण करनेवाले हैं, एकान्त धर्माभिनिवेश-मूलक होते हैं और मोही जीवोंके अहंकार-ममकारसे उत्पन्न होते हैं। ६५ संसारमें अशान्तिके मुख्य कारण विचार-दोष और आचार-दोप हैं। ___६६ विचारदोषको मिटानेवाला 'अनेकान्त' और आचारदोपको दूर करनेवाली 'अहिंसा' है। ६७ अनेकान्त और अहिंसा ही शास्ता वीरजिन अथवा वीरजिन-शासनके दो पद हैं। ६८ अनेकान्त और अहिंसाका आश्रय लेनेसे ही विश्वमें शान्ति हो सकती है। EE जगतके प्राणियोंकी अहिंसा ही 'परमब्रह्म' है, किसी व्यक्तिविशेषका नाम परमब्रह्म नहीं। १०० जहाँ बाह्याभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहोंका त्याग है वहीं उस अहिंसाका वास है। १०१ जहाँ दोनों प्रकारके परिग्रहोंका भार वहन अथवा वास है वहीं हिंसाका निवास है। १०२ जो परिग्रहमें आसक्त है वह वास्तवमें हिंसक है। १०३ श्रात्मपरिणामके घातक होनेसे भूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये सब हिंसाके ही रूप हैं। १०४ धन-धान्यादि सम्पत्तिके रूपमें जो भी सांसारिक विभूति है वह सब बाह्य परिग्रह है। १०५ आभ्यन्तर परिग्रह दर्शनमोह, राग, द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, शोक, भय और जुगुत्साके रूपमें है। १०६ तृष्णा-नदीको अपरिग्रह-सूर्यके द्वारा सुखाया जाता और विद्या-नौकासे पार किया जाता है।

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