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महावीरका सर्वोदयतीर्थ
और न बिना विवेककी भक्ति ही सद्भक्ति कहलाती है । ३० जब तक किसी मनुष्यका अहंकार नहीं मरता तब तक उसके विकासकी भूमिका ही तैयार नहीं होती ।
३१ भक्तियोग से अहंकार मरता है, इसीसे विकास मार्ग में उसे पहला स्थान प्राप्त है ।
३२ बिना भावके पूजा-दान- जपादिक उसी प्रकार व्यर्थ हैं जिस प्रकार कि बकरी के गले में लटकते हुए स्तन ।
३३ जीवात्माओं के विकास में सबसे बड़ा बाधक कारण मोहकर्म है, जो अनन्तदोषों का घर है ।
३४ मोहके मुख्य दो भेद हैं एक दर्शनमोह जिसे मिथ्यात्व भी कहते हैं और दूसरा चारित्रमोह जो सदाचार में प्रवृत्ति नहीं होने देता।
३५ दर्शनमोह जीवकी दृष्टिमें विकार उत्पन्न करता है, जिससे वस्तुतत्त्वका यथार्थ अवलोकन न होकर अन्यथा रूपमें होता है और इसीसे वह मिध्यात्व कहलाता है ।
३६ दृष्टिविकार तथा उसके कारणको मिटानेके लिये आत्मामें तत्त्व-रुचिको जागृत करने की जरूरत है ।
३७ तत्त्वरुचिको उस समीचीन ज्ञानाभ्यासके द्वारा जागृत किया जाता है जो संसारी जीवात्माको तत्त्व तत्त्वकी पहचानके साथ अपने शुद्धस्वरूपका, पररूपका, परके सम्बन्धका सम्बन्धसे होनेवाले विकार दोषका अथवा विभावपरिणतिका, विकारके विशिष्ट कारणों का और उन्हें दूर करके निर्विकार निर्दोष बनने, बन्धनरहित मुक्त होने तथा अपने निज स्वरूपमें सुस्थित होनेका परिज्ञान कराया जाता है, और इस तरह हृदयान्धकारको दूर कर आत्मविकासके सम्मुख किया जाता है ।
३८ ऐसे ज्ञानाभ्यासको ही 'ज्ञानयोग' कहते हैं । ३६ वस्तुका जो निज स्वभाव है वही उसका धर्म है ।