Book Title: Mahavira ka Sarvodaya Tirth
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 36
________________ सर्वोदय-तीर्थके कुछ मूलसूत्र ............३३ १६ सिद्धि स्वात्मोपलब्धिको कहते हैं। उसकी प्राप्तिके लिये आत्मगुणोंका परिचय, गुणोंमें वर्द्धमान अनुराग और विकासमार्गकी दृढ श्रद्धा चाहिये। २० इसके लिये, अपना हित एवं विकास चाहनेवालोंको उन पूज्य महापुरुषों अथवा सिद्धात्माओंकी शरणमें जाना चाहिये जिनमें आत्माके गुणोंका अधिकाधिक रूपमें या पूर्णरूपसे विकास हुआ हो, यही उनके लिये कल्याणका सुगम-मार्ग है। २१ शरणमें जानेका आशय उपासना-द्वारा उनके गुणोंमें अनुराग बढ़ाना, उन्हें अपना मार्गप्रदर्शक मानकर उनके पदचिह्नोंपर चलना और उनकी शिक्षाओंपर अमल करना है। २२ सिद्धिको प्राप्त हुए शुद्धात्माओंकी भक्ति-द्वारा आत्मोकर्ष साधनेका नाम ही 'भक्तियोग' है। ____२३ शुद्धात्माओंके गुणोंमें अनुरागको,तदनुकूलवर्तनको तथा उनमें गुणानुराग-पूर्वक आदर-सत्काररूप प्रवृत्तिको भक्ति'कहते हैं । २४ पुण्य-गुणोंके स्मरणसे आत्मामें पवित्रताका संचार होताहै। २५ सद्भक्तिसे प्रशस्त अध्यवसाय एवं कुशल-परिणामोंकी उपलब्धि और गुणावरोधक संचित कोंकी निर्जरा होकर आत्माका विकास सधता है। २६ सच्ची उपासनासे उपासक उसी प्रकार उपास्यके समान हो जाता है जिस प्रकार कि तैलादिसे सुसज्जित बत्ती पूर्ण-तन्मयताके साथ दीपकका आलिंगन करनेपर तद्रूप हो जाती है। २७ जो भक्ति लौकिक लाभ, यश, पूजा-प्रतिष्ठा, भय तथा रूढि आदिके वश की जाती है वह सद्भक्ति नहीं होती और न उससे आत्मीय-गुणोंका विकास ही सिद्ध किया जा सकता है। २८ सर्वत्र लक्ष्य-शुद्धि एवं भावशुद्धिपर दृष्टि रखनेकी जरूरत है, जिसका सम्बन्ध विवेकसे है। २६ बिना विवेकके कोई भी क्रिया यथार्थ फलको नहीं फलती

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