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सर्वोदय-तीर्थ
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नीच -से-नीच कहा जानेवाला मनुष्य भी जो इस धर्मप्रवर्तककी शरणमें आकर नतमस्तक हो जाता है -- प्रसन्नतापूर्वक उसके द्वारा प्रवर्तित धर्मको धारण करता है - वह इसी लोकमें अति उच्च बन जाता है । इस धर्मकी दृष्टि में कोई जाति गर्हित नहीं - तिरस्कार किये जानेके योग्य नहीं, सर्वत्र गुणोंकी पूज्यता है, वे ही कल्याणकारी हैं, और इसीसे इस धर्म में एक चाण्डालको भी से युक्त होने पर 'ब्राह्मण' तथा सम्यग्दर्शनसे युक्त होने पर 'देव' (आराध्य) माना गया है और चाण्डालको किसी साधारण धर्म- क्रियाका ही नहीं किन्तु 'उत्तमधर्म' का अधिकारी सूचित किया है; जैसा कि निम्न श्रार्य-वाक्योंसे प्रकट है:
यो लोके त्वा नतः सोऽतिहीनोऽप्यतिगुरुर्यतः । raise वाश्रितं नौति को नो नीतिपुरः कुतः ॥८३॥ ---तुतिविद्यायां समन्तभद्रः
न जातिर्गहिंता काचिद् गुणाः कल्याणकारणम् । व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥११- २०३ ।। - पद्मचरिते, रविषेरणाचार्यः
सम्यग्दर्शन- सम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् । देवा देव विदुर्भस्म - गूढाङ्गारान्तरौजसम् ॥२८॥
—-रत्नकरण्डे,
चाण्डालो वि सुरिंदो उत्तम धम्मेण संभवदि ।
समन्तभद्र:
- स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
वोरका यह धर्म तीर्थ इन ब्राह्मगादि जाति-भेदों को तथा दूसरे चाण्डालादि विशेषोंको वास्तविक ही नहीं मानता किन्तु वृत्ति अथवा आचार-भेदके आधारपर कल्पित एवं परिवर्तनशील