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२४ ..... महावीरका सर्वोदयतीर्थ ..... जानता है। साथ ही यह स्वीकार करता है कि अपने योग्य गुणोंकी उत्पत्तिपर जाति उत्पन्न होती है, उनके नाशपर नष्ट हो जाती है और वर्णव्यवस्था गुणकमोंके आधारपर है न कि जन्मके । यथा :चातुर्वण्यं यथाऽन्यच्च चाण्डालादिविशेषणम् । सर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धिं भुवने गतम् ॥११-२०॥
-पद्मचरिते, रविषेणाचार्यः आचारमात्रभेदेन जातीनां भेदकत्पनम् । न जातिर्बाह्मणीयाऽस्ति नियता काऽपि तात्विकी ॥१७-२४ गुणैः सम्पद्यते जातिगुणधसैविपद्यते ॥१७-३२॥
-धर्मपरीक्षायां, अमितगतिः तस्माद्गुणैर्वर्ण-व्यवस्थितिः । ॥११-१६८।।
-पद्मचरिते, रविषेणाचार्यः क्रियाविशेषादिनिबन्धन एव ब्राह्मणादिव्यवहारः।
-प्रमेयकमलमार्तण्डे, प्रभाचन्द्राचार्यः इस धर्ममें यह भी बतलाया गया है कि इन ब्राह्मणादि जातियोंका आकृति आदिके भेदको लिये हुए. कोई शाश्वत लक्षण भी गो-अश्वादि जातियोंकी तरह मनुष्य-शरीरमें नहीं पाया जाता, प्रत्युत इसके शूद्रादिके योगसे ब्राह्मणी आदिमें गर्भाधानकी प्रवृत्ति देखी जाती है, जो वास्तविक जाति-भेदके विरुद्ध है। इसी तरह जारजका भी कोई चिह्न शरीरमें नहीं होता, जिससे उसकी कोई जुदी जाति कल्पित की जाय; और न केवल व्यभिचारजात होनेकी वजहसे ही कोई मनुष्य नीच कहा जा सकता है-नीचताका कारण इस तीर्थ-धर्म में 'अनार्य आचरण' अथवा