Book Title: Mahavira ka Sarvodaya Tirth
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 17
________________ १४ महावीरका सर्वोदयतीर्थ यक है वह 'सर्वोदयतीर्थ है। आत्माका उदय-उत्कर्ष अथवा विकास उसके ज्ञान-दर्शन-सुखादिक स्वाभाविक गुणोंका ही उदय-उत्कर्षे अथवा विकास है। और गुणोंका वह उदय-उत्कर्ष अथवा विकास दोषोंके अस्त-अपकर्ष अथवा विनाशके बिना नहीं होता । अतः सर्वोदयतीर्थ जहाँ ज्ञानादि गुणों के विकासमें सहायक है वहाँ अज्ञानादि दोपों तथा उनके कारण ज्ञानावर्णादिक कर्मोक विनाशमें भी सहायक है-वह उन सब रुकावटोंको दूर करनेकी व्यवस्था करता है जो किसीके विकासमें बाधा डालती हैं। यहाँ तीर्थको सर्वोदयका निमित्त कारण बतलाया गया है तब उसका उपादान कारण कौन ? उपादान कारण वे सम्यग्दशनादि आत्मगुण ही हैं जो तीर्थका निमित्त पाकर मिथ्यादशनादिकं दूर होनेपर स्वयं विकासको प्राप्त होते हैं। इस दृष्टिसे 'सर्वोदयतीर्थ पदका एक दमरा अथ भी किया जाता है और वह यह कि 'समस्त अभ्युदय कारणोंका-सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यकचारित्ररूप त्रिरत्न-धर्मोका-जो हेतु है-उनकी उत्पत्ति अभिवृद्धि आदि में (सहायक) निमित्त कारण है-वह 'सर्वोदयतीर्थ' है * । इस दृष्टिसे ही, कारणमें कार्यका उपचार करके इस तीर्थको धर्मतीथ कहा जाता है और इसी दृष्टिसे वीरजिनेन्द्रको धर्मनीथका कर्ता (प्रवर्तक) लिखा है। जैसा कि हवीं शताब्दीकी बनी हुई 'जयधवला' नामकी सिद्धान्तटीकामें उद्धत निम्न प्राचीन गाथासे प्रकट है निस्संसयकरो वीरो महावीरो जिणुत्तमो । राग-दोस-भयादीदो धम्मतित्थस्स कारओ ॥ इस गाथामें वीर-जिनको जो निःसंशयकर--संसारी प्राणियों • "सर्वेषामभ्युदयकारणानां सम्यग्दर्शनशानचारित्रभेदानां हेतुस्वादभ्युदयहेतुत्वोपपत्तेः।" -विद्यानन्दः ..

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