Book Title: Mahavira ka Sarvodaya Tirth
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 18
________________ सर्वोदयतीर्थ के सन्देहीको दूरकर उन्हें सन्देहरहित करनेवाला-महावीरज्ञान-वचनादिकी सातिशय-शक्तिसे सम्पन्न-जिनात्तम-जितेन्द्रियों तथा कर्मजेताओंमें श्रेष्ठ-और रागद्वेष-भयसे-रहित बतलाया है वह उनके धर्मतीर्थ-प्रवर्तक होनेके उपयुक्त ही है। बिना ऐसे गुणोंकी सम्पत्तिसे युक्त हुए कोई सच्चे धर्मतीर्थका प्रवर्तक हो ही नहीं सकता। यही वजह है कि जो ज्ञानादिशक्तियोंसे हीन होकर राग-द्वेपादिसे अभिभूत एवं श्राकुलित रहे हैं उनके द्वारा सर्वथा एकान्तशासनों-मिध्यादर्शनोंका ही प्रणयन हुआ है, जो जगतमें अनेक भूल-भ्रान्तियों एवं दृष्टिविकारोंको जन्म देकर दुःखोंके जालको विस्तृत करनेमें ही प्रधान कारण बने हैं। सर्वथा एकान्तशासन किस प्रकार दोषोंसे परिपूर्ण हैं और वे कैसे दुःखोंके विस्तारमें कारण बने हैं इस विपयकी चर्चाका यहाँ अवसर नहीं है। इसके लिये स्वामी समन्तभद्रके देवागम, युक्त्यनुशासन और स्वयम्भूस्तोत्र जैसे प्रन्थों तथा अट-सहस्री जैसी टीकाओं को और श्रीसिद्धसेन, अकलंकदेव, विद्यानन्द आदि महान आचार्योके तर्कप्रधान ग्रन्थों को देखना चाहिये। ___ यहाँ पर मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि जो तीर्थशासन-सन्तिवान् नहीं-सवधर्माको लिये हुए और उनका समन्वय अपने में किये हुए नहीं है-वह सबका उदयकारक अथवा पूर्ण-उदयविधायक हा ही नहीं सकता और न सबके सब दुःखोंका अन्त करनेवाला ही बन सकता है; क्योंकि वस्तुतत्त्व अनेकान्तात्मक है-अनेकानेकगुणों-धोको लिये हुए है। जो लोग उसके किसी एक ही गुण-धमपर दृष्टि डालकर उसे उसी एक रूपमें देखते और प्रतिपादन करते हैं उनकी दृष्टियाँ उन जन्मान्ध पुरुषोंकी दृष्टियोंके समान एकांगी हैं जो हाथीके एक-एक अंगको पकड़कर-देखकर उसी एक-एक अगके रूपमें ही हाथीका प्रतिपादन करते थे, और इस तरह परस्परमें लड़ते, झगड़ते, कलहका बीज

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