Book Title: Mahavira Vardhaman
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Vishvavani Karyalaya Ilahabad

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Page 21
________________ १६ महावीर वर्धमान तप का प्राधान्य बताते हुए तप को समस्त धर्मो का मूल और सब पापों का नाश करनेवाला कहा गया है।" यहाँ अहिंसा और त्याग की पराकाष्ठाद्योतक अनेक उपाख्यान रचे गये है, और पशुयज्ञ के स्थान पर शान्तियज्ञ (इन्द्रिय-निग्रह), ब्रह्मयज्ञ, वाग्यज्ञ, मनोयज्ञ और कर्मयज्ञ का महत्त्व स्वीकार किया गया है ।६ तुलाधार-जाजलि संवाद मे कहा है कि सर्वभूतहित तथा इष्टानिष्ट और राग-द्वेष का त्याग ही सच्चा धर्म है तथा अहिंसा सब धर्मो मे श्रेष्ठ है। याज्ञवल्क्य, जनक, पार्श्वनाथ आदि संत-पुरुषों ने इसी श्रमण-परंपरा में जन्म लिया था। वेदकाल से चली आनेवाली श्रमणसंस्कृति की इन विचार-धाराओं का मंथन महावीर ने गंभीरतापूर्वक किया था, उन के जीवन पर इन धारामों का गहरा प्रभाव पड़ा था और उस में से उन्हों ने अपना मार्ग खोजकर निकाला था। उन्हों ने देखा कि धर्म के नाम पर कितना आडबर रचा जा रहा है, यज्ञ-याग आदि को धर्म मानकर उन मे मूक पशुओं की बलि दी जा रही है, देवी-देवताओं के नाम पर कितना अंधविश्वास फैला हुआ है, तथा सब से दयनीय दशा है स्त्री और शूद्रों की जिन्हे वेदादि-पठन का अधिकार नही, तथा वेदध्वनि शूद्र तक पहुँच जाने पर उस के कानों में सीसा और लाख भर दिये जाते है, वेदोच्चारण करने पर उम की जिह्वा काट ली जाती है, वेदमंत्र याद करने पर उस के शरीर के दो टुकड़े कर दिये जाते है;" शूद्रान्न भक्षण करने से गाँव मे सूअर का जन्म लेना पड़ता है,१९ यहाँ तक कि "शान्तिपर्व १५६ "वही, कपोत और व्याध का उपाख्यान १४३-८ १६ वही, १५६ १७ वही, २६८-२७१ "गौतमधर्म सूत्र १२.४-६ १९ वसिष्ठधर्म सूत्र ६.२७

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