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महावीर वर्धमान के साथ-साथ उस समय द्वेष, क्लेश, घृणा और अहंकार की कलुषित भावनायें सर्वत्र फैली हुई थी। ऐसे समय करुणामय महावीर ने सर्व-संहारकारिणी हिंसा के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठाई और बताया कि अहिंसा से ही मनुष्य सुखी बन सकता है, इसी से ससार की शांति कायम रह सकती है और समाज मे सुख की अभिवृद्धि हो सकती है। 'जीवो जीवस्य जीवनम्' इस शोषणात्मक सिद्धांत के विरुद्ध महावीर ने कहा कि लोकहित के लिये, समाज के कल्याण के लिये 'जीरो और जीने दो' इस कल्याणकारी सिद्धांत के स्वीकार किये बिना हमारी बर्बर वृत्तियाँ--दूसरों का संहारकर जय पाने की भावनाये, दूसरों का अपयशकर यश और प्रतिष्ठा प्राप्त करने की अभिलाषाये, निस्सहाय और पीडितों का मर्वस्व छीनकर वाहवाह लूटने की इच्छाये कभी तृप्त नही हो सकती। अपने आप को सुखी बनाने के लिये मनुष्य नाना प्रकार की प्रवृत्तियों करता है और इस से वह दूसरो को सताप पहुँचाता है जिस से ससार की शाति भग होती है, अतएव महावीर का कथन था कि बुद्धिमान पुरुष अपना निज का दृष्टांत सामने रखकर अपने को प्रतिकूल लगनेवाली बातो को दूसरों के विरुद्ध आचरण नहीं करते । वास्तव मे प्रमादपूर्वक प्रयत्नाचारपूर्वक--कामभोगों मे आसक्ति का नाम ही हिसा है, अतएव महावीर का उपदेश था कि विकारों पर विजय प्राप्त करना, इन्द्रियदमन करना और समस्त प्रवृत्तियों को संकुचित करना ही सच्ची अहिंसा है। महावीर अहिंसा-पालन में बहुत आगे बढ़ जाते है और जब वे समस्त प्रकृति मे जीव का आरोपणकर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति तक की रक्षा का उपदेश देते हैं तो उन की अहिंसक वृत्ति-विश्वकल्याण की भावना--चरम सीमा पर पहुँच जाती है। महावीर ने जिस सर्वमुखी अहिंसा का उपदेश दिया था, वह अहिंसा केवल व्यक्ति-परक न थी बल्कि जगत् के कल्याण के लिये उस का सामूहिक रूप से उपयोग हो सकता था।