Book Title: Mahavira Vardhaman
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Vishvavani Karyalaya Ilahabad

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Page 52
________________ ४७ अहिंसा का व्यापक रूप-जगत्कल्याण की कसौटी १२ अहिंसा का व्यापक रूप जगत्कल्याण की कसौटी ऊपर कहा जा चुका है कि सब जीव जीना चाहते है, सब को सुख प्रिय है, अतएव अहिंसा को परम धर्म माना गया है। परन्तु यह विचारणीय है कि यदि केवल जीववध को ही हिंसा कहा जाय तो फिर श्वास लेने में और चलने-फिरने में भी हिंसा होती है, अतएव अहिंसक पुरुष का जीना ही कठिन हो जायगा। ऐसे समय शास्त्रकारों ने कहा है कि कोई जीव मरे या न मरे, परन्तु यदि मनुष्य जीवरक्षा का ठीक ठीक प्रयत्न नहीं करता है तो वह हिंसक है, और यदि वह जीवरक्षा का ठीक ठीक प्रयत्न करता है तो वह हिंसक नही है । इस का अर्थ यह हुआ कि जीवन-निर्वाह के लिये जो क्रियाय अनिवार्य हों उन के द्वारा यदि जीववध हो तो उसे हिंसा नहीं मानना चाहिये। इसी को जैन शास्त्रों में प्रारंभी हिंसा के नाम से कहा गया है। परन्तु इस से भी हिंसा-अहिंसा की जटिलता हल नहीं होती। जीवन-निर्वाह के लिये हम नाना प्रकार के उद्योग-धंधे करते हैं, बीमारी आदि का इलाज करते हैं, अथवा अन्यायी, अत्याचारी, चोर, डाकू तथा शेर आदि जगली पशुओं के आक्रमण से अपनी रक्षा करना चाहते हैं, ऐसे समय हमें जीवित रहने के लिये अपनी रक्षा करनी पड़ती है, जिस में दूसरों की हिंसा अनिवार्य है। इन हिंसात्रों को जैन शास्त्रों में क्रम से उद्योगी और विरोधी हिंसा के नाम से कहा गया है। ऐसी हालत में हमें अहिंसा की दूसरी व्याख्या बनानी पड़ती है कि लोक-कल्याण के लिये, 'अधिक " मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयवस्स पत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिवस्स ॥ (प्रवचनसार ३.१७)

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