Book Title: Mahavira Vardhaman
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Vishvavani Karyalaya Ilahabad

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Page 71
________________ महावीर वर्षमान अर्थ--मृगचर्म धारण करना, नग्न रहना, जटा बढ़ा लेना, संघाटिका पहनना और मुंडन करा लेना ये सब बातें दुःशील भिक्षु की रक्षा नहीं करते। १५ मासे मासे तु जो बाले, कुसग्गेणं तु भुंजए। न सो सुयक्खायधम्मस्स, कलं अग्धइ सोलसि ॥ अर्थ-यदि अज्ञानी पुरुष महीने-महीने का तप करे और कुशा की नोक से भोजन करे, तो भी वह सत्पुरुषों के बताये हुए धर्म के सोलहवें हिस्से को भी नहीं पहुंच सकता। १६ न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो। ___न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण ण तावसो॥ १७ समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो। ___नाणेण मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ॥ १८ कम्मणा बंभणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिनो। वइसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥ (उत्तराध्ययन २६-३१) अर्थ-सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता, 'अोम्' का जाप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, जंगल में वास करने से कोई मुनि नही कहलाता, और कुशा के बने वस्त्र पहनने से कोई तपस्वी नहीं होता । समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता है, तथा तप से तपस्वी होता है। मनुष्य अपने कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से शूद्र होता है । १६ जइ वि य गगिणे किसे चरे, जइ वि य भुंजिय मासमंतसो। जे इय मायाइ मिज्जइ, प्रागंता गम्भाय गंतसो ॥ (सूत्रकृतांग २.१.६)

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