Book Title: Mahavira Vardhaman
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Vishvavani Karyalaya Ilahabad

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Page 63
________________ ५८ महावीर वर्षमान महावीर के सिद्धांतों के विषय में भी यही हुआ। उन के अहिंसा, संयम, तप आदि के कल्याणकारी सिद्धांतों की मनोनीत व्याख्याये की गई और उन का दुरुपयोग किया जाने लगा। अहिंसा और दया के नाम पर छोटे छोटे जीवों की ही रक्षा को परम धर्म माना जाने लगा,तप और त्याग के नाम पर शुष्क क्रियाकाण्ड और बाह्याडंबर की पूजा होने लगी; छूआछूत घुस गई तथा अपने आप को भिन्न भिन्न सम्प्रदाय, गच्छ जाति आदि मे विभक्तकर हमने महावीर की संघ-व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर डाला । जिस महावीर के धर्म ने समाज और लोक को मार्ग-प्रदर्शन करके जनता का असाधारण कल्याण किया था, वह धर्म अपने उद्देश्य से च्युत होकर निष्क्रिय बन गया ! १६ उपसंहार मानना होगा कि हमारे अधःपतन का कारण हुआ हमारे देश की आपसी फूट और राष्ट्रीयता की भावना का अभाव । हमारी संकुचित वृत्ति के कारण हमारा धर्म समष्टिगत न रहकर व्यक्ति-परक बन गया, दीर्घ-दृष्टि उम में से विलुप्त हो गई, इस लोक की चर्चा की ओर से उपेक्षित होकर हम परलोक की चर्चा मे लग गये, स्वदोष-दर्शन से विमुख होकर हम परदोष-दर्शन करने में अपनी शक्ति का अपव्यय करने लगे, पुरानी संस्कृति, पुरानी परपरा में हम दोष निकालते चले गये, परन्तु हम ने उसे देश, काल के अनुसार नया रूप देकर उस का विकास नही किया। परिणाम यह हुआ कि हम अपनी स्वतत्रता खो बैठे और आज तो सदियों की गुलामी के कारण हम अपनी सर्वतोमुखी संस्कृति और सभ्यता को भुलाकर दुनिया की घुड़दौड़ में अपने को बहुत पिछड़ा हुआ पाते हैं। आज हम देखते हैं हमारी कोई सस्कृति नहीं रही, हमारे कला-कौशल और विज्ञान खाना, अपराह्न में फिर कुछ पीना, प्राधी रात में द्राक्ष और शक्कर खाना, इस प्रकार शाक्यपुत्र ने मोक्ष का वर्शन किया

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