Book Title: Mahavira Vardhaman
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Vishvavani Karyalaya Ilahabad

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Page 55
________________ महावीर वर्धमान यद्यपि उक्त उदाहरण अपवाद अवस्था के हैं, परन्तु ये इस बात के are है कि जैन भिक्षु आपत्काल आने पर प्राततायी जनों को उचित दण्ड देने के लिये जो बाध्य हुए उस का कारण था एकमात्र लोकहित -- श्रमणसघ की रक्षा । आगे चलकर अर्वाचीन जैन ग्रन्थो मे जो हिसा के सकल्पी, आरभी, उद्योगी और विरोधी इस प्रकार चार भेद बताकर गृहस्थ को सकल्पी अर्थात् इरादेपूर्वक, जान बूझकर की हुई हिंसा को छोड़कर बाकी तीन हिसाये करने की जो छूट दी गई है वह भी यही घोषित करता है कि जगत् का कल्याण ही अहिसा की एकमात्र कसौटी है । वास्तव मे अहिसा, सत्य आदि गुण जब तक सामूहिक रूप न धारण कर ले तब तक उनका जनहित की दृष्टि से कोई मूल्य नही । जैनधर्म ने अहिसा के पालन करने मे कोई ऐसी शर्त नही लगाई जिस से किसी राजा या क्षत्रिय को प्रजा का पालन करते समय अपने राजकीय कर्त्तव्य से च्युत होना पडे । इसके विपरीत जैन शास्त्रो मे श्रेणिक, कूणिक प्रजातशत्रु, चेटक, सप्रति, खारवेल, कुमारपाल आदि अनेक राजाओ के उदाहरण मिलते है जिन्हो ने प्रजा की रक्षार्थ शत्रु से युद्ध किया। भरत आदि चक्रवर्ती राजाओं की दिग्विजयो के विस्तृत वर्णन भी इस के द्योतक है । अतएव मानना होगा कि जिम अहिसा मे लोककल्याण की भावना है, जनसमाज का हित है उसी को अहिसा माननी चाहिये । जैन ग्रंथो मे एक राजा की कथा आती है. किसी राजा के तीन पुत्र थे । वह उन में से एक को राजगद्दी पर बैठाना चाहता था, परन्तु निश्चय न कर पाता था कि किस को बैठाना चाहिये । एक दिन राजा ने तीनों राजकुमारों की थालियों में खीर परोसी और व्याघ्र समान भयकर कुत्तों को उन पर छोड़ दिया। पहला राजकुमार कुत्तों के भय से अपनी थाली छोडकर भाग गया, दूसरे ने डंडे से कुत्तों को मार भगाया और स्वयं खीर खाता रहा, तीसरे राजकुमार ने स्वय भी खीर खाई और कुत्तों को भी खाने दिया । राजा तीसरे राजकुमार से ५०

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