Book Title: Mahavira Vardhaman
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Vishvavani Karyalaya Ilahabad

View full book text
Previous | Next

Page 43
________________ ३८ महावीर वर्षमान प्रत्येक बात को अपने व्यक्तिगत अनुभव की कसौटी पर जाँचो; यदि तुम्हें वह अपने तथा श्रौरों के लिये हितकर जान पड़े तो उसे मान लो, न जान पड़े तो छोड़ दो ।" कितना सुन्दर उपदेश है ! ६ महावीर का धर्म - आत्मदमन की प्रधानता महावीर का सीधा-सादा उपदेश था कि आत्मदमन करो, अपने आप को पहचानो और स्व-पर-कल्याण करने के लिये तप और त्यागमय जीवन बिताओ। 'किसी जीव को न सताओ, झूठ मत बोलो -- जो एक बार कह दो उसे पूरा करो, चोरी मत करो - आवश्यकता से अधिक वस्तु पर अपना अधिकार मत रक्खो, परस्त्री को माँ-बहन समझो, तथा सपत्ति का यथायोग्य बँटवारा होने के लिये धन को बटोरकर मत रक्खो' संक्षेप मे यही पंच पाप-निवृत्ति का उपदेश था जो हर किसी को समझ मे आ सकता हैं । 'कर्ममल के कारण, सांसारिक वासनाओं के कारण मनुष्य का विकास नहीं हो पाता, प्रमाद के कारण वासनाओं के सस्कार -प्राकर जमा होते जाते हैं, उन का रोकना आवश्यक है जो विवेक से ही संभव है । जब मनुष्य को यह विवेक हो जाता है, उसे स्व और पर का ज्ञान हो जाता कल्याण का साक्षात्कारकर कल्याणपथ का पथिक बनता है', यही महावीर के सप्त तत्त्वों का रहस्य है । जैनधर्म के अनुसार आत्मविकास की चौदह श्रेणियाँ हैं, जिन्हे गुणस्थान कहते हैं । जिस समय मनुष्य उच्चतम श्रेणी पर पहुँच जाता है उस समय उसे कुछ करना बाक़ी नही रह जाता, वह कृतकृत्य हो जाता है, उस की सब गुत्थियाँ सुलझ जाती है, ग्रंथियाँ सब टूट जाती है और वह श्रात्मानुभव की, आनन्द की चरम अवस्था होती और वह 'अंगुत्तरनिकाय १, कालामसुत्त ६१

Loading...

Page Navigation
1 ... 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75