Book Title: Mahavira Vardhaman
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Vishvavani Karyalaya Ilahabad

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Page 28
________________ अहिंसा का उपदेश २३ अनुभव करता है वह अपनी व्यथा भी समझ सकता है, अतएव शांत संयमी जीव दूसरों की हिंसा करके--दूसरों को कष्ट पहुँचा करके जीवित नही रहना चाहते । वास्तव में देखा जाय तो जो मनुष्य दूसरों की ओर से बेपरवाह रहता है वह स्वयं अपनी उपेक्षा करता है और जो स्वयं अपनी उपेक्षा करता है वह दूसरों की ओर से बेपरवाह रहता है। दूसरे शब्दों में, व्यष्टि और समष्टि का अन्योन्याश्रय संबंध है, व्यक्ति समाज का ही एक अंग है और व्यक्ति को छोड़कर समाज कोई अलग वस्तु नही, अतएव प्रत्येक व्यक्ति पर समाज का उत्तरदायित्व है, इसलिये यदि हम अपनी उपेक्षा करते है तो यह समाज की उपेक्षा है और समाज की उपेक्षा से व्यक्ति की उपेक्षा होती है । 'जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ'२६ (जो एक को जानता है वह सब को जानता है, और जो सब को जानता है वह एक को जानता है) इस प्रसिद्ध वाक्य का यही रहस्य है। ___ जैसा ऊपर कहा गया है महावीर के युग मे यज्ञ-याग आदि का खूब प्रचार था, वैदिकी हिंसा को हिसा नही समझा जाता था, तथा अंधश्रद्धा तुलना करो सब्बा दिसानुपरिगम्म चेतसा । न एवज्झगा पियतरं अत्तना क्वचि ॥ एवं पियो पुथु अत्ता परेसं । तस्मा न हिसे परं अत्तकामो ॥ (संयुत्तनिकाय, कोसलसंयुत्त, १,६) अर्थ-समस्त संसार में प्रात्मा से प्रियतर और कोई वस्तु नहीं, अतएव जिसे प्रात्मा प्रिय है उसे चाहिए कि वह दूसरे की हिंसा न करे प्राचारांग १.५७ २१ वही, १.२३ प्राचारांग ३.१२३

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