Book Title: Mahavira Vardhaman
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Vishvavani Karyalaya Ilahabad

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Page 23
________________ महावीर वर्धमान ३ दीक्षा के पश्चात - घोर उपसर्ग महावीर दीक्षित होकर -- गृहत्याग कर -- जगत् का कल्याण करने के लिये निकल पड़े। उन्हें भयंकर से भयंकर कष्टों का सामना करना पड़ा, परन्तु एक वीर योद्धा की तरह वे अपने कर्त्तव्यपथ से कभी विचलित न हुए । उन्हे नग्न और मलिनतनु देखकर छोटे छोटे बालक डर जाते और उन के शरीर पर धूल, पत्थर आदि फेककर शोर मचाते थे । कोई उन्हें कर्कश वचन कहता और कोई उन पर डंडों से श्राक्रमण करता था, परन्तु वीर वर्धमान समभाव से सब कुछ सहन करते थे । वे प्रायः मौन रहते और स्तुति और निन्दा मे समभाव रखते थे । नृत्य-गीत तथा दण्डयुद्ध और मुष्टियुद्ध मे उन्हे कोई कुतूहल नही था, और न स्वैर कथानों मे उन्हें कोई रुचि थी। महावीर संयमधर्म का पालन करते थे; उन्हों ने शीत जल का त्याग कर दिया था और वे बीज तथा हरित आदि का सेवन न करते थे । वे निर्दोष आहार लेते तथा परवस्त्र और परपात्र का ग्रहण नही करते थे । भोजन-पान में उन्हें आसक्ति नही रह गई थी, तथा वे मात्रापूर्वक ही प्रहार करते थे । महावीर ने अपने शरीर को इतना साध लिया था कि खुजली आने पर भी वे खुजाते न थे तथा यदि उन के शरीर पर धूल आदि लग जाती तो वे उसे पोंछने की चेष्टा न करते थे । वे तिरछे तथा पीछे की ओर न देखते थे । श्रमर्णासह महावीर शून्यगृहों में, सभास्थानों में, प्याऊघरों में, बस्ती के बाहर लुहार और बढ़ई आदि की दुकानों में, तृणों के ढेर के समीप, मुसाफ़िरखानों में, उद्यानों में, स्मशान मे तथा वृक्ष के नीचे एकान्तवास करते थे । इस प्रकार महावीर ने रात-दिन संयम मे लगे रहकर, अप्रमादभाव से, शान्तभाव से तेरह वर्ष तक कठोर तपश्चरण किया । इतने दीर्घ काल तक हमारे चरित्रनायक कभी सुख की नींद नही सोये; जहाँ उन्हें जरा नीद आती वे फ़ौरन उठ बैठते और ध्यान मे अवस्थित हो जाते, अथवा इधर-उधर चंक्रमण करने लगते थे । १८

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