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स्वामी ने अपनी उत्कृष्टता में साधा था। महावीर और विकल्प चाहे कैसा भी क्यों न हो को जानने के ये सब बाह्य रूप हैं कि उन्होंने घर वह बांधता है। बांधने वाला परतन्त्र है और छोड़ा था, राजमहल छोड़े थे, और सारी विभूति परतन्त्रता दुख का मूल है। लेकिन जहां दृष्टा छोड़ी थी।
भाव हैं, जहां साक्षी भाव हैं वहां फिर बंधना
नहीं होता। वह फिर विकल्पों की कसक में नहीं क्षुद्र ज्ञान ही घर और दीवार की सीमानों को ।
प्रा पाता। जानता है । जहां विराट ज्ञान पा गया वहाँ उनके खड़े होने का दायरा भी अनन्त बन जाता है साधना का केन्द्र बिन्दु-'सामायिक' उनका घर भी अनन्त बन जाता है और उनका जीवन भी अनन्त ही हो जाता है। सच तो यह है
भगवान महावीर की साधना का केन्द्र बिन्दु कि विराट को भोगने का सामर्थ्य एक क्षुद्र चित्त
है-'सामायिक' । यदि हम वैज्ञानिक सन्दर्भ में इस में नहीं हो पाता इमलिये वह दीवारों से घिरे
'सामायिक' शब्द का विश्लेषण करें तो भगवान क्षेत्र को घर मान बैठता है। महावीर जैसे प्रात्म
महावीर से बड़ा और कोई वैज्ञानिक दिखाई नहीं पूरुषार्थी, जिनकी जन्म से निर्वाग तक विजय
पड़ता। संसार की प्रत्येक वस्तु तीन आयाम में की भाषा रही, से स्पष्ट है कि यदि वे ब्राह्मण भी
होती हैं वे हैं - लम्बाई, चौडाई और ऊंचाई। होते तो क्षत्रिय कहलाते । क्योंकि क्षत्रिय-धर्म है,
लेकिन प्रात्मा की एक और दिशा है जो चेतना विजय पाना, भुकना नहीं।
की दिशा है, वह है,–'समय' । जो अस्तित्व का
चौथा अायाम है । जो प्राइन्सटीन और मिन्को ने महावीर स्वामी ने बारह वर्ष जो तपश्चर्या अस्तित्व की परिभाषा इन्हीं चारों आयामों के की थी उसकी उपलब्धि 'वीतरागता' थी। सत्य, जोड़ से की है । इस बात का पहला बोध आज अहिंसा, ब्रह्मचर्य प्रादि उस वीतराग-उपलब्धि की से 2500 वर्ष पहिले भगवान महावीर स्वामी उप-उत्पत्तियां थीं । जैसे गेहूँ के साथ भूसा उसका को हुआ था कि 'समय' चेतना की दिशा है । जो बाइ-प्रोडक्ट होता है, वैसे ही जब वीतरागता तत्व सदा से है और सदा रहेगा - वह समय है। फलित होती है तो कुछ अशुद्ध अवस्थायें अपने समय की धारा में संसार की प्रत्येक वस्तु आप विजित हो जाती हैं। वीतरागता एक परिवर्तित हो रही है, परन्तु यह स्वयं अपरिवर्तअनुभूति है जो अन्तर में पैदा होती है और सत्य, नीय है । यही अकेला शाश्वत सत्य है जो सदा था अहिंसा और ब्रह्मचर्य आदि उसकी अभिव्य- और सदा रहेगा। इसलिये भगवान महावीर ने क्तियां हैं।
आत्मा को 'समय' शब्द से व्यवहृत किया। जिस
प्रकार एक वैज्ञानिक ने परमारणु का विश्लेषण केवल ज्ञान का क्या अर्थ है ? जहां ज्ञान ने एक इलेक्ट्रान के रूप में किया। उसी प्रकार स्वयं के कर्तापन का भाव मिटाकर केवल दृष्टापन महावीर स्वामी ने चेतना का विश्लेषण एक का भाव रख लिया, वही ज्ञान, केबल-ज्ञान बन अन्तिम खण्ड या प्रण के रूप में किया है जिसका जाता है । क्योंकि जब तक कर्तव्य का भाव है, नाम--समय है। समय वर्तमान का तथाकथित तब तक स्वामित्व है, भोगने की सज्ञा है। फिर क्षण (एक माइक्रोसेकेण्ड) उसका भी कुछ चाहे ही पुण्य ही क्यों न भोगे, प्रेम ही क्यों लाखवां हिस्सा होता है, तो इलेक्ट्रान की भांति न करे उस कापन में विकल्प आयेगा दिखाई नहीं देता। भगवान महावीर कहते हैं कि
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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