Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1978
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 163
________________ उन्होंने अपने पुत्रों को सिखाये । उनका युगपुरुष नाम सार्थक था । इसी कारण और परमार्थ के अभिलाषी थे। वे श्रमण मुनि हो गये, वे अनशन आदि तप करते थे। वृषभदेव ने एक सुनियोजित व्यवस्थित रूप में ___ यहां श्रमण से अभिप्राय है. श्राम्यति तपः प्रजाओं को अनुशासित किया। उन्होंने कर्म के क्लेशं सहते इति श्रमणः ।" अर्थात् जो तपश्चरण आधार पर वर्गीकरण किया । वे चतुर्वर्णी व्यवस्था करते हैं, वे श्रमण हैं। श्री हरिभद्रसूरि ने दशके सूत्रधार बने । 1 चाणक्य की अर्थनीति में जिस वैकालिक सूत्र (13) में लिखा है, ''श्राम्यन्तीति चतुर्वर्ण व्यवस्था पर अधिकाधिक बल दिया गया श्रमणाः तपस्यन्तीत्यर्थः ।" इसका अर्थ है कि जो है, वह वृषभदेव से प्रारम्भ हो चुकी थी। प्राचार्य श्रम करता है, कष्ट सहता है अर्थात् तप करता सोमदेव के नीतिवाक्यामृत में वरिणत चतुर्वर्ण है, वह तपस्वी श्रमण है । रविषेणाचार्य के व्यवस्था चाणक्य की अर्थनीति से प्रभावित न पदमचरित (6/212) में कथन है. "परित्यज्य होकर, अपनी ही पूर्वपरम्परा, अर्थात् वृषभदेव की नृपो राज्यं श्रमणो जायते महान् । तपसा प्राप्य व्यवस्था से प्रभावित थी। कुछ अनुसन्धित्सु इस सम्बन्धं तपोहि श्रम उच्यते ।" सम्बन्ध में भ्रम मूलक मान्यताएं स्थापित कर डालते हैं। उन्हें उपक्त बात पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। तैत्तिरीयारण्यक 2/7 में श्रमणों की परिभाषा दी है, "वातरशनानां श्रमणा नामृषीणामूर्ध्वमंभोगभूमि के बाद कर्म भूमि के प्रारम्भ में, थिनः ।" सायणाचार्य ने इसकी व्याख्या की है, धरा और धरावासियों की आवश्यकताओं के "वातरशमाख्या: ऋषयः श्रमणा - ऊर्ध्वमंथिनो समाधान में वृषभदेव ने जिस घोर श्रम का परिचय वभूवुः ।" इसका अर्थ है कि दिगम्बर श्रमण दिया, वही अात्मविद्या के पुरस्कर्ता होने में भी ऋषि तप से सम्पूर्ण कर्म नष्ट करके ऊर्ध्वगमन किया । वे श्रमणधारा के प्रादि प्रवर्तक कहे जाते करने वाले हुए हैं। ऊर्ध्वगमन जीव का स्वभाव है, हैं। भागवतकार ने ऋषभदेव को नाना योग- वह सदा से इसके लिए प्रयत्न करता रहा है, किन्तु चर्यानों का आचरण करने वाले "कैवल्यपति' की कर्मों का भार उसे अधिक ऊंचाई तक नहीं जाने संज्ञा तो दी ही हैं, साथ ही उन्हें दिगम्बर श्रमणों देता । जब जीव कर्म-बन्धन से नितांत मुक्त हो और ऊर्ध्वगामी मुनियों के धर्म का ग्रादि प्रतिष्ठाता जाता है, तब अपने स्वाभावानुसार लोक के अन्त और श्रमणधर्म का प्रवर्तयिता माना है। उनके तक ऊर्ध्वगमन करता है, जैसा कि तत्वार्थरात्र का सौ पुत्रों में से नौ पुत्र श्रमण मुनि बने, भागवत में कथन है, "तदन्तरमूर्ध्व गच्छन्त्यालोकान्तात 134 यह भी उल्लेख मिलता है---- जैन शास्त्रों में जहां भी मोक्षतत्व का वर्णन आया है. वहां पर इसका विस्तार से वर्णन मिलता है। "नवाभवन महाभागा मुनयो ह्यर्थशंसितः। इसी सन्दर्भ में वैदिक ऋषियों ने वातरशना श्रमण श्रमणा वातरशना प्रात्मविद्याविशारदाः ॥" मुनियों के लिए ऊर्ध्वपंथी. ऊवं रेता आदि शब्दों -श्रीमद्भागवत्, 11/2/20 का प्रयोग किया है। इसका अर्थ है-ऋषभदेव के सौ पुत्रों में से लोक के अन्त तक ऊर्ध्वगमन कर पाना श्रमण नौ पुत्र बड़े भाग्यवान थे, प्रात्म-ज्ञान में निपुण थे की साधना का मुख्य लक्ष्य होता है। 'वृहदारण्य महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-49 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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